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अनुप्रेक्षा
६. अन्यत्व अनुप्रेक्षा
दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बंधवा । जीवंत जीवंत मयं, नाणुव्वयंति य ॥
(उ १८३१४)
स्त्री, पुत्र, मित्र और बांधव जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं । किन्तु वे मृतक का अनुगमन नहीं करते ।
तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से,
चिगयं डहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्ताविय नायओ थ,
दायारमन्नं अणुसंकमंति ॥ ( उ १३।२५ )
( अपने प्रिय के ) उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं ।
नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमदुक्खिया । पियरो वि तहा पुत्ते, बंधू रायं ! तवं चरे ॥ (उ १८ ।१५) पुत्र अपने 'मृत पिता को परम दुःख के साथ श्मशान ले जाते हैं और इसी प्रकार पिता भी अपने मृत पुत्रों और बंधुओं को श्मशान ले जाता है । (कोई किसी का नहीं है ।) इसलिए हे राजन् ! तू तपश्चरण कर । ७. अशौच अनुप्रेक्षा
इमं सरीरं अणिच्चं, असुइं असुइसंभवं । असासयावास मिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥ ( उ १९/१२)
यह शरीर अनित्य है, अशुचि है और अशुचि से उत्पन्न है । यह आत्मा का अशाश्वत आवास तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है ।
अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते । विass विद्धंसइ ते सरीरयं समयं गोयम ! मा पमायए ।। ( उ १०।२७)
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पित्त रोग, फोड़ा - फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है । यह शरीर नरशील है ।
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८. आश्रव अनुप्रेक्षा
..... अज्झत्थ हेडं निययस्स संसारहेउं च वयंति
( उ १४/१९) आत्मा के आन्तरिक दोष (आश्रव) ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है । अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गईपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥ ( उ ९।५४) मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता । मान से अधम गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है । लोभ से दोनों प्रकार का ऐहिक और पारलौकिक भय होता है ।
संवर अनुप्रेक्षा
एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए । ( उ १०।१५) प्रमाद - बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म - मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए भगवान् ने कहा गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
बंधो ।
बंधं ॥
जावंत विज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारंमि अनंतए ||
जितने अविद्यावान् ( मिथ्यात्व हैं, वे सब दुःख को उत्पन्न करने की भांति मूढ़ बने हुए इस अनन्त लुप्त होते हैं ।
नहु पाणवहं अणुजाणे,
६. संवर अनुप्रेक्षा
( उ ६।१) से अभिभूत ) पुरुष वाले हैं। वे दिङ मूढ संसार में बार-बार
मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं ।
(3515) प्राण-वध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी भी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता ।
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पाणे य नाइवाज्जा, से समिए त्ति वुच्चई ताई । तओ से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥
(उ८९)
जो जीवों की हिंसा नहीं करता, उसे 'समित' ( संवरयुक्त ) कहा जाता है। उससे पाप कर्म वैसे ही दूर
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