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सम्यक्त्व के आचार
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सम्यक्त्व
मवई।
१२. सम्यक्त्व के लक्षण
उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माण वेयणोवसम- करते-उसमें अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं। खयसमुत्थे पसमसंवेगादिलिंगे सुभे आयपरिणामे पण्णत्ते । निर्वेद के परिणाम
(आव २ पृ २७५) निव्वेएणं दिव्वमाणसतेरिच्छिएस कामभोगेसु निव्वेयं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षण:। हव्वमागच्छइ, सव्वविसएस विरज्जइ । सव्वविसएस
(आवहाव २ पृ६८) विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरंभपरिच्चायं आत्मा का वह शुभ परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य है, जो मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह के क्षयोपशम से भवइ ।
(उ २९।३) उत्पन्न होता है। इसमें प्रशस्त सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का निर्वेद (भव-वैराग्य) से जीव देव, मनुष्य और तियंच अनुवेदन होता है ।
संबंधी कामभोगों में तीव्र ग्लानि को प्राप्त होता है, इसके पांच लक्षण हैं
सब विषयों से विरक्त हो जाता है। सब विषयों से प्रशम-क्रोध आदि कषायों की शांति ।
विरक्त होता हुआ वह आरम्भ और परिग्रह का परित्याग संवेग-मोक्ष की अभिलाषा ।
करता है। आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग निर्वेद- संसार से विरति ।
का विच्छेद करता है और सिद्धिमार्ग को प्राप्त करता अनुकम्पा-प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव । आस्तिक्य-आत्मा, कर्म आदि में विश्वास ।
१३. सम्यक्त्व के आचार परमत्वसंथ वो वा सुदिपरमत्थसेवणा वा वि ।
निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिछी य । वावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥
उववह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अद्र ।। (उ २८२८)
(उ २८।३१) परमार्थ का परिचय, परमार्थद्रष्टाओं की सेवा, व्यापन्न दर्शनी (सम्यक्त्व से शून्य) और कुदर्शनी व्यक्तियों
___शङ्कितं---देशसर्वशङ्कात्मकं तस्याभावो निःशङ्कितम्। का वर्जन, यह सम्यक्त्व का श्रद्धान है।
कांक्षितं ----युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योसंवेग के परिणाम
लकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मक
तदभावो निष्काङ्क्षितम्। विचिकित्सा - फलं प्रति संवेगेणं अणत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तराए धम्म
सन्देहो यथा--किमियत: क्लेशस्य फलं स्यादुत नेति ? सद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोहमाणमाया
किममी यतयो मल दिग्धदेहा: ? प्रासुकजलस्नाने हि क लोभे खवेइ, कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्त
इव दोषः स्यादित्यादिका निन्दा तदभावो निविचिकित्सं विसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । दसणविसोहीए य णं
निर्विजुगुप्सं वा। विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।
___अमूढा ऋद्धिमत्कुतीथिकदर्शने यनवगीतमेवास्मद्दर्शन
(उ २९।२) मिति मोहविरहिता सा चासो दृष्टिश्च बुद्धिरूपा अमूढसंवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव अनुत्तर धर्म- दृष्टिः । उपबृंहणमुपबृंहा-दर्शनादिगुणान्वितानां सुलब्धश्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से तीन जन्मानो यूयं युक्तं च भवादशामिदमित्यादिवचोभिस्तत्तदसंवेग को प्राप्त करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान,
गुणपरिवर्द्धनम् । स्थिरीकरणं च - अभ्युपगमधर्मानुष्ठानं माया और लोभ का क्षय करता है। नये कर्मों का संग्रह
प्रति विषीदतां स्थर्यापादनम् । वात्सल्यं-सार्मिकजनस्य नहीं करता। कषाय के क्षीण होने से प्रकट होने वाली
भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम् । प्रभावना --स्वतीमिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक श्रद्धान) की आरा
र्थोन्नतिहेतुचेष्टासू प्रवर्तनात्मिका। (उशाव ५६७) धना करता है । दर्शनविशोधि के विशद्ध होने पर कई सम्यक्त्व के आठ आचार हैंएक जीव उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कुछ १. निःशंकित .. शंका का अर्थ है-संदेह । जिनभाषित
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