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सम्यक्त्व
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कारक-रोचक
उनके द्वारा सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्ररुचि है। संक्षेपरुचि जानना चाहिए। वह जिन-प्रवचन में बीजरचि
विशारद नहीं होता और अन्य दर्शनों का भी जानकार एगेण अणेगाइं, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । नहीं होता। उदए ब्ब तेल्लबिंदू, सो बीयरुइ त्ति नायब्बो ॥ धर्मचि
(उ २८।२२)
जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । पानी में डाले हए तेल की बंद की तरह जो सम्यक्त्व
सदहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ एक पद (तत्त्व) से अनेक पदों में फैलता है. उसे बीजरुचि
(उ २८।२७) कहते हैं।
जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय-धर्म. श्रत-धर्म और अभिगमरुचि
चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है उसे धर्मरुचि जानना सो होइ अभिगमरुई, सूयनाणं जेण अत्थओ दिळं। चाहिए। एक्कारस अंगाइं पइण्णगं दिट्ठिवाओ य ।। ११. कारक-रोचक-दीपक सम्यक्त्व
(उ २८।२३)
सम्मत्तसामाइयं-कारगं रोचगं दीवगं। कारगं जथा जिसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद आदि
साधणं । रोचगं सेणियादीणं। दीवगं अभवसिद्धियस्स, श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगमरुचि है।
मिच्छदिद्विस्स वा भवसिद्धियस्स । अभवसिद्धियस्स कहं ? जीवाजीवपुण्णपावासवसंवरनिज्जरबंधमोक्खेसु परि
सो एक्कारस अंगाई पढति न य सद्दहति, धम्म च कहेति, च्छित्तनवपदत्थाभिगमपच्चइयं अभिगमसंमत्तं ।
एवं दीवगं।
(आवचू १४३६) (आवचू २ पृ १३४) यस्मिन सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते सम्यक् जीव, अजीव, पुण्य. पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा,
करोति सदनुष्ठानमिति कारकं, यत्तु सदनुष्ठानं रोचयत्येव
के बंध और मोक्ष - इन नौ तत्त्वों को जानकर उनके
केवलं न पुनः कारयति तत् रोचकं, यत् स्वयं तत्त्वश्रद्धानअस्तित्व के प्रति आस्थावान होना अभिगम सम्यक्त्व है।
हीन एव मिथ्यादृष्टि: परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं विस्ताररुचि
दीपयति-उत्पादयति तस्य परिणाम-विशेषः कारणे दवाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा । कार्योपचारात् सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते । सव्वाहि नयविहीहि य, वित्थाररुइ त्ति नायव्वो॥
(आवमवृ प ४३४) (उ २८।२४) सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैंजिसे द्रव्यों के सब भाव सभी प्रमाणों ओर सभी
१. कारक सम्यक्त्व-इस सम्यक्त्व के होने पर व्यक्ति नय-विधियों से उपलब्ध हैं, वह विस्ताररुचि है।
सम्यक् आचरण करता है । जैसे साधु । क्रियारुचि
२. रोचक सम्यक्त्व - इस सम्यक्त्व के होने पर व्यक्ति दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु ।
सदनुष्ठान में केवल रुचि रखता है, क्रिया नहीं जो किग्यिाभावरुई, सो खल किरियारुई नाम ।।
करता । जैसे- सम्राट् श्रेणिक आदि । (उ २८।२५)
३. दीपक सम्यक्त्व- इसका शाब्दिक अर्थ है-सम्यक्त्व दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति,
को दीप्त करना । तत्त्वश्रद्धा से शून्य मिथ्यादष्टि गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसकी वास्तविक रुचि है, वह
व्यक्ति भी धर्मकथा आदि के द्वारा दूसरों में तत्त्वक्रियारुचि है।
श्रद्धा उत्पन्न कर देता है। कारण में कार्य का उपचार संक्षेपरुचि
कर उसके इस उद्दीपन के परिणाम विशेष को दीपक अणभिग्गहियकुदिट्टी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। सम्यक्त्व कहा गया है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु ।। भव्य के यह सम्यक्त्व होता है। अभव्य व्यक्ति भी
(उ २८।२६) आचार आदि ग्यारह अंग पढ़ सकता है, किन्तु उन जिसमें कुदृष्टि (एकांतवाद) की पकड़ नहीं है, उसे पर श्रद्धा नहीं करता।
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