________________
सूत्ररुचि
शुद्ध अभ्रपटल के छंट जाने पर मनुष्य आकाश को स्पष्टता से देख पाता है ।
जैसे साफ धोया हुआ गीला वस्त्र सूख जाने पर पूर्ण निर्मल हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्वमोह के पुद्गल क्षीण हो जाने पर सम्यक्त्व निर्मल होता है ।
सेन्नाणावगमे सुद्धयरं केवलं जहा नाणं । तह खाइयसम्मत्तं खओवसमसम्म विगमम्मि ॥ ( विभा १३२२)
जैसे चार ज्ञानों का अपगम होने पर शुद्ध केवलज्ञान प्रकट होता है, वैसे ही क्षयोपशम सम्यक्त्व के दूर होने
पर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
अग्नि का दृष्टांत
खीणा निव्वाय हुयासणी व छारपिहिय दरविज्झायविहाडियजलणोवम्मा
व्व उवसंता । aratमा |
( विभा १२५६ ) बुी हुई अग्नि के समान क्षीण कषाय, राख से ढकी अग्नि के समान उपशांत कषाय और आधी बुझी हुई तथा खंडित अग्नि के समान क्षयोपशम कषाय है । १०. सम्यक्त्व के प्रकार : अभिगम आदि
दो प्रकार का सम्यक्त्व
सम्मत्तं दुविहं - अभिगमसंमत्तं निसग्गसम्मत्तं च । ( आवचू २ पृ १३४)
सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं— अभिगम सम्यक्त्व और निसर्ग सम्यक्त्व |
दस प्रकार का सम्यक्त्व
निसग्गुवएस हर्ड, आणारुइ सुत्तवीयरुइमेव | अभिगमवित्थार रुई, किरियासंखे वधम्मरुई ॥ ( उ २८/१६)
of (सम्यक्त्व) के दस प्रकार हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । निसर्गरुचि
भूयत्थे णाहिगया, जीवाजीवा य पुण्णपावं च । सहसम्मुइयासव संवरो य, रोएइ उ निसग्गो ॥ जो जिगदिट्ठे भावे चव्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्तिय निसग्गरुइ त्ति नायव्वो । ( उ २८११७-१८ ) जो परोपदेश के बिना जातिस्मृति, प्रतिभा आदि के
Jain Education International
६७९
सम्यक्त्व
द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर आदि तत्त्वों को भूतार्थ-यथार्थ मानता है और उन पर श्रद्धा करता है, वह निसर्गरुचि है
जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही 'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है' — ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्गरुचि कहते हैं ।
निसग्गो नाम सभावो, जथा सावगपुत्तनत्तुयाणं कुलपरंपरागतं निसग्गसम्मत्तं भवति, जहा वा सयंभुरमणमच्छाण पडिमा संठिताणि साहुसंठिताणि य पउमाणि मच्छर वा दट्ठूणं कम्माणं खओवसमेणं निसग्गसम्मत्तं भवति । ( आवचू २ पृ १३४) निसर्ग का अर्थ है - स्वभाव। जैसे श्रावक के पुत्रों तथा पौत्रों को जो कुलपरंपरागत सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वह निसर्ग सम्यक्त्व कहलाता । अथवा जैसे स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाले मत्स्यों को प्रतिमा के आकार वाले तथा साधु के संस्थान वाले पद्मों को देखकर तद्आवरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर नैसर्गिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उपदेशरुचि
एए चेव उ भावे, उवइट्ठे जो परेण सद्दहई । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो । ( उ २८/१९) जो दूसरों - छद्मस्थ या केवली के द्वारा उपदेश प्राप्त कर इन भावों पर श्रद्धा करता है, वह उपदेशरुचि वाला है ।
आज्ञारुचि
रागो दोसो मोहो अण्णाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम || ( उ २८/२० ) जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और अज्ञान के दूर हो जाने पर वीतराग की आज्ञा में रुचि रखता है, वह आज्ञारुचि है ।
सूत्ररुचि
जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो ॥ ( उ २८।२१) जो अंग प्रविष्ट या अंग बाह्य सूत्रों को पढ़ता हुआ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org