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सम्यक्त्व
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क्षायिक सम्यक्त्व
. अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि अशुद्ध और अनन्तानुबन्धी कवाय सम्यक्त्व का बाधक नहीं मिश्र पंज वाला मिथ्यात्व अनुदीर्ण तथा शुद्ध पंज वाला
किह दंसणाइघाओ न होइ संजोयणाइ वेदयओ। मिथ्यात्व उपशांत रहता है।
मंदाणुभावयाए जहाणुभावम्मि वि कहिंचि ।। उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनुदीर्ण मिथ्यात्व का निच्चोदिन्नपि जहा सयलचउण्णाणिणो तदावरणं । उपशम ---इन दो भावों के मिश्रण में परिणत शुद्ध पुंज न विघाइ मंदयाए पएसकम तहा नेयं ।। लक्षण वाले मिथ्यात्व का वेदन होता है, यही क्षायोप
(विभा १२९७,१२९८) शमिक सम्यक्त्व है। क्षय और उपशम से निर्वर्तित जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवमिथ्यात्व को ही उपचार से सम्यक्त्व कहा गया है। ज्ञान के आवारक कर्मों का मंद विपाकोदय रहता है. क्योंकि शोधित मिथ्यात्व के पुद्गल तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व किंतु मद अनुभाव के कारण वह विपाकोदय मतिज्ञान के आवारक नहीं होते।
अ दि में बाधक नहीं बनता, वैसे ही क्षायोपश मिक
सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी कषाय का प्रदेशोदय रहता है, कोद्रव का दृष्टांत
किन्तु वह उस सम्यक्त्व में बाधक नहीं बनता।
८.वेदक सम्यक्त्व अपुग्वेण तिपुंज मिच्छत्तं कुणइ कोहवोवमया । अनियट्टीकरणेण उ सो सम्मईसणं लहइ । वेययसम्मत्तं पुण सव्वोइयचरमपोग्गलावत्थं ।.... (विभा १२१८)
(विभा ५३३)
जब दर्शनसप्तक की प्रकृतियां प्रायः क्षीण हो जाती जैसे कोद्रव धान्य के शोधन के आधार पर तीन पुंज किए जाते हैं-शुद्ध, अर्धशुद्ध और अविशुद्ध । उसी प्रकार
हैं और सम्यक्त्वमोह के चरम पुद्गलों का वेदन होता है, जीव अपूर्वकरण के द्वारा मिथ्यात्व का शोधन कर तब वेदक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उसके तीन पुंज करता है । अनिवृत्तिकरण के द्वारा जीव ६. क्षायिक सम्यक्त्व इस शुद्धपुंज को प्राप्त होकर सम्यकदर्शन प्राप्त कर लेता .."खीणे दंसणमोहे तिविहम्मि वि खाइयं होइ।
(विभा ५३३) वेएइ संतकम्मं खओवसमिएस नाणुभावं सो।।
अनन्तानुबन्धिकषाय चतुष्टय के क्षीण होने के
अनन्तर मिथ्यात्व मोहनीय, मित्र मोहनीय और स क्षयोपशमावस्थकषायवाजीवः क्षायोपशमि
सम्यक्त्व मोहनीय के क्षीण होने पर क्षायिक सम्यक्त्व केष्वनन्तानुबन्ध्यादिषु तत्संबन्धि सत्कर्माऽनुभवति
प्राप्त होता है। प्रदेशकर्म वेदयति, न विपाकतस्तु तान् वेदयति ।।
निव्वलियमयण कोहवरूवं मिच्छत्तमेव सम्मत्तं । (विभा १२९३ मवृ पृ ४८५)
खीण न उ जो भावो सहहणालक्खणो तस्स ।। क्षयोपशम सम्यक्त्व में अनंतानबन्धी कषाय का सो तस्स विसुद्धयरो जायइ, सम्मत्तपोग्गलक्खयो। प्रदेशोदय के रूप में वेदन होता है, विपाकोदय के रूप में दिट्टि ब्व सण्हसुद्धब्भपडलविगमे मणूसस्स ।। वेदन नहीं होता।
जह सुद्धजलाणुगयं वत्थं सुद्धं जलक्खए सुतरं ।
सम्मत्त सुद्धपोग्गलपरिक्खए दंसणं पेवं ।। संजोयणाइयाणं नणदयो संजयस्स पडिसिद्धो ।
(विभा १३१९-१३२१) सच्चमिह सोऽणुभावं पडुच्च न पएसकम्मं तु ॥
सम्यक्त्व मोह की कर्मप्रकृति के क्षीण होने पर
(विभा १२९) मिथ्यात्व ही क्षीण होता है न कि तत्त्वश्रद्धान रूप संयमी के अनंतानुबंधी कषाय आदि का उदय नहीं सम्यक्त्व । शोधित मदन कोद्रव की तरह शोधित रहता । यह निषेध विपाकोदय की अपेक्षा से है, प्रदेशोदय मिथ्यात्व पुद्गलों को ही यहां उपचार से सम्यक्त्व कहा का प्रतिषेध नहीं है।
गया है। इन सम्यक्त्वपुद्गलों के क्षीण होने पर जीव का श्रद्धानरूप भाव विशुद्धतर होता है। जैसे कि श्लक्ष्ण
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