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समिति
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सम्मूच्छिम
५. उत्सर्ग समिति
आगमानुसारी विधि से मार्ग-व्यवस्थापन और उच्चार-प्रस्रवण की चौबीस भूमियां और तीन काल
उन्मार्ग-गमन निवारण करना गुप्ति है। सच्चेष्टात्मक होने भूमियां हैं । मुनि ने यह सोचकर कि क्या परिष्ठापनभूमी में
से इसे समिति भी कहा गया है। ऊंट बैठे रहते हैं, उनका प्रतिलेखन नहीं किया। रात्री में
समिति और गुप्ति परस्पर भिन्न भी है, अभिन्न प्रस्रवण की बाधा हुई, वह प्रथम भूमी में गया । वहां ऊंट
भी है । समिति केवल प्रवृत्तिरूप है, गुप्ति प्रवृत्तिनिवृत्तिबैठा हुआ था। दूसरी और तीसरी भूमी में भी ऊंट बैठा
रूप है। समिति में गुप्ति नियम से होती है। गुप्ति में हआ मिला । उसने तब ऊंट को वहां से उठाया। देव ने
समिति होती भी है, नहीं भी होती। कुशल वचन बोलने प्रतिबोध होते हए कहा-अरे! तुम सत्ताईस भूमियों
वाला वचनगुप्त भी है, समित भी है। की प्रतिलेखना क्यों नहीं करते ? मुनि को भूल का भान
सच्चेष्टासु प्रवृत्तावेव समितयः, तथा गुप्तयो हुआ।
निवर्त्तनेऽप्युक्ता अशोभनमनोयोगादिभ्यः, चरणप्रवर्त्तने च,
उपलक्षणं चैतत् शुभार्थेभ्योऽपि निवृत्तेः, वाक्काययोनि७. समिति-गुप्ति : प्रवचनमाता
व्यापारताया अपि गुप्तिरूपत्वात । उक्तं हि गन्धहस्तिना अपवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य ।
.--- सम्यगागमानुसारेणारक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोपंचेव य समिईओ, तओ गुत्तीओ आहिया ।। व्यापारः कायव्यापारो वाग्व्यापारश्च निर्व्यापारता वा
(उ २४.१) वाक्काययोगप्तिरिति तदनेन व्यापाराव्यापारात्मिका पांच समितियां और तीन गुप्तियां-इन आठों को गुप्तिरुक्तेति ।
(उशावृ प ५१९,५२०) प्रवचनमाता कहा गया है। (द्र प्रवचनमाता) शुभ/सम्यक कार्यों में प्रवृत्ति करना समिति है। ८. समिति के आठ प्रकार
अशुभ योगों से निवृत्ति गुप्ति है। गुप्ति प्रवर्तन और
निवर्तन-व्यापार और निर्व्यापार दो रूप वाली है। इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय ।
योगों की अशुभ या शुभ प्रवृत्ति के निरोध को गुप्ति कहते मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ।। एयाओ अट्ठ समिईओ, समासेण वियाहिया । ___ समिति का अर्थ है-शुभ योगों में प्रवृत्ति । गुप्ति के दुवालसंग जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।। तीन रूप हैं-अशुभ योगों से निवत्ति, शुभ योगों में
(उ २४।२,३)
प्रवृत्ति तथा शुभ योगों से भी निवृत्ति (वचन और काय समिति के आठ प्रकार हैं
योग का निर्व्यापार)। ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान- आचार्य गंधहस्ती के अनुसार गुप्ति के दो प्रकार समिति, उच्चारसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और हैं -प्रवृत्त्यात्मक और अप्रवृत्त्यात्मक । आगम के अनुसार कायगुप्ति। इनमें जिन-भाषित द्वादशांगरूप प्रवचन राग-द्वेष रहित परिणाम से मानसिक, वाचिक और समाया हुआ है।
कायिक प्रवृत्ति करना प्रवृत्त्यात्मक गुप्ति है तथा वाणी ६. समिति और गुप्ति : एक विमर्श
और काया की अप्रवृत्ति अप्रवृत्त्यात्मक गुप्ति है। प्रवचन विधिना मार्गव्यवस्थापनमन्मार्गगमन निवारण गुप्ति के तीन प्रकार
(द्र. गप्ति ) गुप्तिरिति वचनात्कथञ्चित्सच्चेष्टात्मकत्वात्समितिशब्द- सम्मूर्छिम-स्त्री और पुरुष के संयोग के बिना बाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः, यत्तु भेदेनोपादानं तत्समितीनां
ही लोकाकाश में बिखरे हुए परप्रवीचाररूपत्वेन गुप्तीनां प्रवीचाराप्रवीचारात्मकत्वेना
माणुओं और विशिष्ट पर्यावरण के न्योऽन्यं कथञ्चिद् भेदात्, तथा चागमः--
योग से स्वतः उत्पन्न होने वाले जीव । समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्यो ।
एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक सभी कूसलवइमुदीरंतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ।।
जीव निश्चित रूप से सम्मूच्छिम (उशा प ५१४)
होते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव दोनों
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