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संयमी की जीवन शैली
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संयम
६. मन-वचन-शरीर संयम के परिणाम
जो संयमपूर्वक चलता है, खड़ा होता है, बैठता है,
सोता है, खाता है और बोलता है, उसके पापकर्म का बंध मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च नहा हाता। निज्जरेइ।
(उ २९।५७) गमन विधि (द्र. समिति) मन-समाधारणा--मन को आगम-कथित भावो में भाषा-विवेक (द्र. भाषासमिति) भली-भांति लगाने से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है। आहार-विवेक (द्र. आहार) एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवों-ज्ञान के विविध
अजयं चरमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई । आयामों को प्राप्त होता है । ज्ञान-पर्यवों को प्राप्त कर
बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कड़यं फलं ।। सम्यक् दर्शन को विशुद्ध और मिथ्यात्व को क्षीण करता
अजयं चिटुमाणो......"आसमाणो.....
सयमाणो...''भुंजमाणो" भासमाणो।। वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणदंसणपज्जवे
(द ४ गाथा १-६) विसोहेइ, विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ दुल्लहबो
जो असंयमपूर्वक चलता है, खडा होता है, बैठता है, हियत्तं निज्जरेइ ।
(उ २९।५८)
सोता है, भोजन करता है, बोलता है, वह त्रस और वाक-समाधारणा-वाणी को स्वाध्याय में भली
स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उसके पाप कर्म का भांति लगाने से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन-पर्यवों--
बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। सम्यक् -दर्शन के विविध आयामों को विशुद्ध करता है। दशन पर्यवों को विशुद्ध कर वह बोधि की सुलभता को संयमरमण : सुरसुख प्राप्त होता है और बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं ।
रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ.
अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि
रयाण परियाए तहारयाणं । केवलिकम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा सिझइ बुज्झइ मुच्चइ
निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । (उ २९।५९)
रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए । ___ काय-समाधारणा-संयमयोगों में काय को भलीभांति
(दचूला १।१०, ११) लगाने से जीव चारित्र-पर्यवों-चारित्र के विविध
संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक आयामों को विशुद्ध करता है । चारित्र-पर्यवों को विशुद्ध ।
के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते कर यथाख्यात चारित्र (वीतराग भाव) को प्राप्त करने
उनके लिए मुनि-पर्याय महानरक के समान दुःखद होता
के योग्य विशुद्धि करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध कर है। केवलि-सत्क (के वली के विद्यमान) चार कर्मों-वेदनीय,
संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्कृष्ट आयुष्य, नाम और गोत्र को क्षीण करता है। उसके
जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख पश्चात् सिद्ध होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है,
नरक के समान उत्कृष्ट जानकर पण्डित मूनि संयम में परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त करता है।
ही रमण करे। ७. संयमी की जीवन शैली
(एक मास की संयम पर्याय वाला मूनि व्यंतर देवों जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए ।
की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है।""बारह मास जयं भुजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ।। की संयम पर्याय वाला मुनि अनुत्तर देवों की तेजोलेश्या
(द ४ गाथा ८) का अतिक्रमण कर देता है। देखें-- भगवई १४।१३६)
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