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संलेखना
संलेखना --- शरीर और कषाय का कृशीकरण | अनशन की प्रारंभिक साधना ।
१ द्रव्य भाव संलेखना
२. संलेखना कब ?
३. संलेखना का क्रम
४. संलेखना के अतिचार
* संलेखना : अनशन
१. द्रव्य-भाव संलेखना
संलेखनं द्रव्यतः शरीरस्य भावतः कषायाणां कृश( उशावृ प ७०६ )
तापादनम् ।
शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है । कषाय को कृश करना भाव संलेखना है । २. संलेखना कब ?
लाभंतरे जीविय वूहइत्ता । पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥
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( उ ४/७ ) लाभ:- अपूर्वार्थप्राप्तिः अन्तरं - विशेष : यावद्विशिष्ट विशिष्टतरसम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तिरित: सम्भवति तावदिदं जीवितं अन्नपानोपयोगादिना वृद्धि नीत्वा लाभविशेषप्राप्त्युत्तरकालं सर्वप्रकारैरवबुध्य यथेदं नेदानीं प्राग्वत्सम्यग्दर्शनादिविशेषहेतुः तथा च नातो निर्जरा, न हि जरया व्याधिना वा अभिभूतं तत् तथाविधधर्माधानं प्रति समर्थम् एवं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय ततः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च भक्तं प्रत्याख्याय, सर्वथा जीवितनिरपेक्षो भूत्वा मलविनाशकृत् "" 'संलेखनादिविधानतस्त्यजेत् । ( उशावृप २१७, २१८ ) जब तक अपूर्व विशिष्ट विशिष्टतर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की उपलब्धि हो, तब तक अन्नपान आदि के द्वारा इस जीवन को पोषण दे और जब बह उपलब्धि न हो तब साधक सब प्रकार से यह जान ले कि अब यह शरीर पूर्व की भांति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की विशिष्ट प्राप्ति करने में असमर्थ है, इससे निर्जरा नहीं हो रही है, यह बुढापे और रोग से आक्रांत है, अतः अब धर्माराधना करने में भी समर्थ नहीं है । इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से बहार का परित्याग कर शरीर से सर्वथा निरपेक्ष हो
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संलेखना का क्रम
जाये और विधिपूर्वक संलेखना का आचरण कर अंत में यावज्जीवन अनशन द्वारा शरीर का त्याग करे ।
मुनि मरणकाल प्राप्त होने पर संलेखना के द्वारा ( द्र. अनशन) शरीर का त्याग करता है । भक्त-परिज्ञा, इङ्गिनी और प्रायोपगमन - इन तीनों में से किसी एक अनशन को स्वीकार कर सकाम मरण से मरता है ।
अह कालंमि संपत्ते, आघायाय समस्ये । सकाममरणं मरई, तिहमन्नयरं मुणी ॥ (उ ५।३२)
कदा च मरणमभिप्रेतम् ? यदा योगा नोत्सर्पन्ति । "समुच्छ्रयम् — अन्तः कार्मणशरीरं बहिरीदारिकम् । ( उशावृ प २५४ )
जब मानसिक, वाचिक और कायिक योगों से नये विकास की संभावना क्षीण हो जाये, तब संलेखना - अनशन करना चाहिए । इस उपक्रम से कार्मण शरीर और औदारिक शरीर दोनों क्षीण होते हैं ।
अहवा ण कुज्जाहारं, छहि ठाणेहिं संजए । पच्छा पच्छिमकालंमि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ (पिनि ६६५ ) आहार न करने के छह कारणों में अंतिम कारण है- शरीर त्याग ।
आदि दायित्व-निर्वहन कर आत्मविहारी मुनि जीवन के शिष्य - निर्माण, धर्मप्रचार हेतु सुदूर क्षेत्रों की यात्रा सन्ध्याकाल में संलेखना करते हैं। संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर अनशन की अर्हता प्राप्त कर वे यावज्जीवन के लिए आहार का परित्याग कर शरीर का व्युत्सर्ग कर देते हैं ।
३. संलेखना का क्रम
बारसेव उ वासाई, संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्भिमिया, छम्मासा य जहन्निया ॥ पढमे वासच उक्कम्मि, विगईनिज्जूहणं करे । fare arearrafo, विचित्तं तु तवं चरे ॥ एगंतरमायामं, कट्टु संवच्छरे दुवे | तओ संवच्छरद्धं तु, नाइविगिट्ठ तवं चरे ॥
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