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गमिक-अगमिक श्रुत
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श्रुतज्ञान
भव्य सम्यकदष्टि जीव जो श्रुत पढते हैं, वह सम्यक् अथवा भव्य (मोक्षगामी) का श्रत सादि-सान्त श्रुत है । यह श्रुत अष्टविध कर्मों का शोधन-अपनयन और अभव्य का श्रुत अनादि-अनन्त है। करता है। अभव्य मिध्यादृष्टि जीव जो श्रुत पढ़ते हैं, वह उवओग-सर-पयत्ता थाणविसेसा य होंति पण्णवए । मिथ्याश्रुत है । यह श्रुत कर्म के उपादान का हेतु है। गइ-ट्ठाण-भेय-संघाय-वण्ण-सद्दाइभावेसु १८. सादि-सपर्यवसित तथा अनादि-अपर्यवसित श्रुत
(विभा ५४७) इच्चेयं दुबालसंग गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्ठयाए
प्रज्ञापक के श्रुत का उपयोग, स्वर, प्रयत्न (तालु साइयं सपज्जवसियं । अवच्छित्तिनयट्टयाए अणाइय
आदि का व्यापार) और आसन-ये भाव-पर्याय बदलते अपज्जवसियं।
(नन्दी ६८) रहते हैं । इस परिवर्तन की अपेक्षा द्वादशाङ्ग को सादिव्यवच्छित्तिनय (पर्यायास्तिक नय) की अपेक्षा से सपर्यवसित कहा गया है। द्वादशांग गणिपिटक सादि-सपर्यवसित है।
गति, अवस्थिति, भेद, संघात, वर्ण, शब्द, रस, अव्यवच्छित्तिनय (द्रव्यास्तिक नय) की अपेक्षा से परमाणु आदि प्रज्ञापनीय भावों के ये पर्याय बदलते रहते द्वादशांग गणिपिटक अनादि-अपर्यवसित (कालिक) है। हैं। इन ग्राह्य विषयों के परिवर्तन की अपेक्षा से श्रत को
तं समासओ चउब्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दवओ, सादि-सपर्यवसित कहा गया है। खेत्तओ. कालओ, भावओ।
१९. गमिक-अगमिक श्रुत ____ दवओ णं-सम्मसुयं एगं पुरिसं पडुच्च साइयं
गमियं दिट्ठिवाओ । अगमियं कालियं सुयं । सपज्जवसियं, बहवे पुरिसे य पहुच्च अणाइयं अपज्जवसियं ।
(नन्दी ७२) खेत्तओ णं -पंच भरहाई पंच एरवयाई पडुच्च साइयं
भंगगणियाइ गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । सपज्जवसियं, पंच महाविदेहाइं पडुच्च अणाइयं
गाहाइ अगमियं खलु कालियसुर्य दिट्रिवाए वा ।। अपज्जवसियं ।
(विभा ५४९) कालओ णं-ओसप्पिणि उस्सप्पिणि च पडुच्च
जिस श्रुत में भंग, गणित अथवा गमों-सदृश पाठों साइयं सपज्जवसियं, नोओस प्पिणि नोउस्सप्पिणि च
की बहुलता हो, वह गमिक श्रुत है, जैसे --दृष्टिवाद । पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं ।
जिसमें प्रायः गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि असदश ___ भावओ णं-जे जया जिणपण्णत्ता भावा आघ
पाठों की बहुलता हो, वह अगमिक श्रुत है, जैसेविज्जति......"ते तया पडुच्च साइयं सपज्जवसियं,
कालिकश्रुत । खाओवस मियं पूण भावं पडच्च अणाइयं अपज्जवसियं ।
आदिमध्यावसानेष किञ्चिद्विशेषतो भूयो भूयस्तस्यैव अहवा-भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसियं,
सूत्रस्योच्चारणं गमः ।“गमा अस्य विद्यन्ते इति अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं । (नन्दी ६९)
गमिकम् ।
(नन्दीमवृ प २०३) सम्यक् श्रुत के चार प्रकार हैं१. द्रव्यतः-सम्यक श्रत एक पुरुष की अपेक्षा सादि
आदि, मध्य और अन्त में किंचित विशेषता के साथ
पुनः-पुनः उसी सदृश सूत्रपाठ का उच्चारण 'गम' सांत है, बहुत पुरुषों की अपेक्षा अनादि-अनन्त है।
कहलाता है । जिसमें गम/सदृश पाठ हों, वह गमिक है। २. क्षेत्रत:-पांच भरत और पांच ऐरवत की अपेक्षा
गमा:-अर्थपरिच्छित्तिप्रकाराः ।। सादि-सान्त है, महाविदेह की अपेक्षा अनादि-अनन्त
(उशावृ प ७१३)
अर्थपरिज्ञान के प्रकार गम कहलाते हैं । ३. कालत:--- अवसर्पिणी और उत्सपिणी की अपेक्षा सादि-सान्त है। जहां काल के ये विभाग नहीं हैं. गमिक श्रुत के प्रकार उनकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है।
गमियं णाम जं भंगजुत्तं गणितगमियं वा । जं वा ४. भावतः-अर्हत-प्रज्ञप्त भाव प्रज्ञापक और प्रज्ञापनीय कारणवसेण सरिसगमं भवति। तत्थ भंगगमियं एगद्गतिगभाव की अपेक्षा सादि-सान्त है । क्षायोपशमिक भाव चउभंगमादी। गणियगमितं णाम जहा एक्कजीवाधणकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है।
पट्टकरणेण अण्णाणिवि जीवाधणपट्राणि गणिज्जति ।
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