________________
श्रुतज्ञान
६४०
सम्यक्-मिथ्या-श्रुत
जिन कर्मों से संज्ञीभाव आवृत है, उनमें से कुछ के लिए सम्यक् श्रुत है। भिन्न दशपूर्वी से सामायिक का क्षय और कुछ का उपशम अर्थात् क्षयोपशम होने से पर्यंत सभी श्रुतस्थान सम्यग्दष्टि स्वामी के लिए सम्यक संज्ञी-भाव प्राप्त होता है । वह संज्ञी जीव शब्द को सुनकर श्रुत और मिथ्यादष्टि स्वामी के लिए मिथ्या श्रुत हैं। पूर्वापर का बोध करता है, वह दृष्टिवादोपदेश संज्ञीश्रत अंगाणंगपविठं सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं ।
आसज्ज उ सामित्तं लोइय-लोउत्तरे भयणा ॥ मिच्छत्तस्स सुतावरणस्स य खयोवसमेणं कतेणं सण्णि
(विभा ५२७) सुतस्स लंभो भवति,...."सो य मिच्छत्तस्सुदयतो अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट आगम सम्यकश्रुत हैं। अस्सण्णी भवति......."तं च सुतअण्णाणावरणखयोवसमेणं लौकिक शास्त्र मिथ्याश्रुत हैं । श्रुत का स्वामी सम्यकलब्भति ।
(नन्दीचू पृ ४७) दृष्टि है तो उसके लिए लौकिक और लोकोत्तर-दोनों दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि का श्रुत संज्ञी- शास्त्र सम्यक्श्रुत हैं। मिथ्यादृष्टि के लिए दोनों मिथ्याश्रुत और मिथ्यादृष्टि का श्रुत असंज्ञीश्रुत कहलाता है। श्रुत हैं । मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से इहंगगतं आयारादि, अणंगगतं च आवस्सगादि । एतं संजीश्रुत की प्राप्ति होती है । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय सव्वं दव्वट्ठितणयमतेण सामिणा असंबद्ध पंचत्थिकाया इव और श्रुतअज्ञानावरण के क्षयोपशम से असंज्ञीश्रुत की णिच्चं सम्मसुतं भण्णति । (नन्दीचू पृ ४९) प्राप्ति होती है।
आचार आदि अंगप्रविष्ट और आवश्यक आदि १७. सम्यक-मिथ्या-श्रुत
अनंगप्रविष्ट श्रुत पंचास्तिकाय की तरह सदा सम्यक्श्रुत
है। यहां स्वामी की संबद्धता विवक्षित नहीं है। सम्मसुयंजं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं....."पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं।
सम्यक्-मिथ्या-श्रुत का हेतु मिच्छसुयं-जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिट्ठिहिं .."बावत्तरिकलाओ"एयाई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तसच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं ।
परिग्गहियाई मिच्छसुयं । एयाई चेव सम्मदिट्ठिस्स अहंतों द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक सम्यकश्रुत सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं । है। मिथ्यादष्टि द्वारा कृत स्वच्छन्द निरूपण मिथ्याश्रत ""मिच्छदिहिस्स वि एयाइं चेव सम्मसुयं । कम्हा?
सम्मत्तहेउत्तणओ। जम्हा ते मिच्छदिद्रिया तेहिं चेव
समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिदीओ चयंति । सम्यक्-मिथ्या-श्रुत के स्वामी
(नन्दी ६७) दुवालसंगं गणिपिडगं चोइसपूव्विस्स सम्मसूयं,
बहत्तर कलाएं आदि मिथ्यादष्टि के मिथ्यारूप में अभिष्णदसव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसु भयणा ।
परिणत होने के कारण मिथ्याश्रत होते हैं और सम्यक्त्वी परिणत होने के कारण मित्र
के सम्यक् रूप में परिणत होने के कारण सम्यक् श्रुत ___ जो चोदसपुवी तस्स सामादियादि बिंदुसारपज्जव- होते हैं। साणं सव्वं नियमा सम्मसुतं, ततो ओमत्थगपरिहाणीए मिथ्यादृष्टि के भी ये सम्यक्श्रुत हो सकते हैं क्योंकि जाव अभिण्णदसव्वी एताण वि सामाइयादि सव्वं सम्म- उनकी सम्यक्त्व प्राप्ति में ये हेतु बनते हैं। कुछेक सतं सम्मगणतणतो चेव भवति ।"..."अभिण्णदसपुवे- मिथ्यादष्टि उन्हीं शास्त्रों से प्रेरित होकर अपने आग्रह को हिंतो हेद्रा ओमत्थगपरिहाणीए जाव सामादितं ताव सव्वे छोडते हैं। सुतट्ठाणा सामिसम्मगुणत्तणतो सम्मसुतं भवति, ते चेव भवसिद्धिया उ जीवा सम्मद्दिट्टी उ जं अहिज्जति । सुतट्ठाणा सामिमिच्छगुणतणतो मिच्छसुतं भवति । तं सम्मसुएण सुयं कम्मट्ठविहस्स सोहिकरं ।।
(नन्दीच पृ ४९) । मिच्छद्दिट्ठी जीवा अभव्वसिद्धी य जं अहिज्जति । स्वामित्व की अपेक्षा द्वादशांग गणिपिटक चतुर्दशपूर्वी, तं मिच्छसुएण सुयं कम्मादाणं च तं भणियं ।। त्रयोदशपूर्वी, द्वादशपूर्वी, एकादशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी
(उनि ३१३,३१४)
ज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org