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संज्ञी-असंज्ञी श्रुत
श्रुतज्ञान
प्रयोग होता है, तब वह श्रुतज्ञान का कारण बनता है। जो अभिसंधारण-अव्यक्त या व्यक्त विज्ञान से
क का सारा व्यापार ही श्रुत प्रवृत्ति करता है, वह हेतूपदेश संज्ञा से युक्त होता है। है किन्तु सिर धुनना आदि चेष्टाएं श्रुत नहीं हैं। जिसमें अभिसंधारणपूर्वक करणशक्ति नहीं होती, वह
उच्छवास आदि ही श्रुत के रूप में रूढ हैं । जो सुना असंज्ञी है। जाता है, वह श्रत है। उच्छ्वास आदि श्रवण के विषय हेउगोवएसो गोविंदणिज्जूत्तिमादितो। तंमि भणितंहैं । सिर, हाथ आदि की चेष्टा दृश्य है, श्रव्य नहीं है, .."अभिसंधारणपूव्विया णाम मणसा पुव्वापरं संचितिऊण अतः वह श्रुत नहीं है। अनुस्वार अकार आदि वर्णों की जा पवित्ती वा निवत्ती वा सा अभिसंधारणपुग्विगा तरह अर्थ का ज्ञापक है, अतः श्रुत है।
करणसत्ती भण्णति । सा च जेसि अत्थि ते जीवा जं सई (भाषा अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दोनों प्रकार सोऊण बुझंति तं हेउगोवएसेण सण्णिसूर्य भण्णति । की होती है। जहां जीव का वाक् प्रयत्न हो और भाषा
(आवचू १ पृ ३१) वर्णात्मक न हो, वह नो-अक्षरात्मक बन जाती है । उच्छ्
गोविन्दनियुक्ति के अनुसार अभिसंधारणपूर्वक करणवास-निःश्वास वाक प्रयत्न से उत्पन्न नहीं हैं अतः भाषा
शक्ति का अर्थ है-मन से पूर्वापर का विमर्श कर प्रवृत्तिस्मक नहीं हैं फिर भी श्रुतज्ञान के कारण हैं इसलिए इन्हें
निवत्ति करना । जिन जीवों में यह शक्ति होती है, वे अनक्षर श्रुत माना गया है । अकलंक ने अक्षर श्रुत और
जिस शब्द को सुनकर ज्ञान करते हैं, वह हेत्वादोपदेशिक अनक्षर श्रुत की संयोजना अनुमान, उपमान आदि के साथ की है। उनके अनुसार स्वार्थानुमान- स्वप्रतिपत्ति
संजीश्रुत है। के काल में अनक्षर श्रुत होता है। परार्थानुमान-दूसरे
जे पुण संचितेउं इट्टाणिठेसु विसयवत्थुसु ।
वटंति निवटैंति य सदेहपरिपालणाहेउं ।। के लिए प्रतिपादन के काल में अक्षर श्रुत होता है । इसी
पाएण संपए च्चिय कालम्मि न याइदीहकालण्णा । प्रकार उपमान प्रमाण भी अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत
ते हेउवायसण्णी निच्चेट्ठा होंति अस्सण्णी ।। दोनों प्रकार का होता है। देखें-नन्दी ६० का टिप्पण)
(विभा ५१५,५१६) १६. संज्ञी-असंज्ञी श्रुत
जो जीव अपने देहपरिपालन के लिए चिन्तनपूर्वक (संज्ञा का अर्थ है-मनोविज्ञान । जिनमें ईहा, अपोह ।
इष्ट विषय में प्रवृत्त और अनिष्ट विषय से निवृत्त होते आदि की शक्ति है, जिनमें इष्ट के लिए प्रवृत्ति और
हैं, वे हेतुवादोपदेश की अपेक्षा संज्ञी हैं। हेतुवाअनिष्ट से निवृत्त होने की क्रिया है, जिनमें अनेकांतवाद
दोपदेशिकी संज्ञा प्रायः वर्तमानकालिक होती है, किन्तु का संज्ञान है, वे संज्ञी हैं। एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी की।
दीर्घकालिक नहीं होती। हेतुवाद की अपेक्षा से केवल कोटि में परिगणित हैं।)
निश्चेष्ट एकेन्द्रिय (पृथ्वी आदि) ही असंज्ञी हैं, शेष सण्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिओवएसेणं
द्वीन्द्रिय आदि सब जीव संज्ञी हैं। हेउवएसेणं दिद्विवाओवएसेणं ।
(नन्दी ६१) संज्ञी श्रुत के तीन प्रकार हैं
३. दृष्टिवादोपदेश १. कालिक्युपदेश।
दिट्रिवाओवएसेणं-सण्णिसूयस्स खओवसमेणं सण्णीति २. हेतूपदेश।
लब्भइ । असण्णिसुयस्स खओवसमेणं असण्णीति लब्भइ । ३. दृष्टिवादोपदेश ।
- (नन्दी ६४) १. कालिक्युपदेश
दष्टिवाद की अपेक्षा संज्ञीश्रुत के क्षयोपशम से संज्ञी विवरण के लिए देखें-मन ।
और असंज्ञीश्रुत के क्षयोपशम से असंज्ञी होता है। . २. हेतूपदेश
जेहिं कम्मेहि सण्णिभावो आवरितो, तेसि केसिंचि हेउवएसेणं-जस्स णं अत्थि अभिसंधारणपब्विया खएण केसिंचि उवसमेणं सण्णिभावो लब्भति । सोय करणसत्ती-से णं सण्णीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि सण्णी जं सई सुणेति सुणिता य पुवावरं बुज्झति तं अभिसंधारणपब्बिया करणसत्ती--से णं असण्णीति दिदिवाओवदेसेण सण्णिसूयं भण्णति । लब्भइ। (नन्दी ६३)
(आवचू १ पृ ३१)
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