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श्रुतज्ञान
वंजिज्जइ जेणत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं । भण्णइ भासिज्जतं सव्वमकाराइ
तक्कालं ॥ ( विभा ४६५ )
प्रदीप से घट की तरह जिससे अर्थ अभिव्यक्तप्रकाशित होता है, वह व्यञ्जन है । अकार से हकार तक के भाष्यमाण शब्द उच्चारणकाल में व्यञ्जनाक्षर कहलाते हैं ।
वंजणक्खरो अभिधेयातो भिन्नं अभिन्नं च । जम्हा मोदउत्ति भणिए णो वयणस्स पूरणं भवति । अतो गज्जति जहा भिन्नया । जम्हा पुण मोदउत्ति भणितं तंमि चेव संपच्चतो भवति, णो तव्वतिरित्तेसु घटादिसु, अतो अभिन्नया । ( आव ११२७) व्यञ्जनाक्षर अभिधेय से भिन्न भी है, अभिन्न भी है । 'मोदक' शब्द कहने से मुंह नहीं भरता - इस दृष्टि से वाच्य वाचक से भिन्न है । मोदक कहने से मोदक का ही संप्रत्यय होता है, तद्द्व्यतिरिक्त घट आदि का नहीं । अतः वाच्य वाचक से अभिन्न है ।
लन्ध्यक्षर
जो अक्खरोवलंभी सा लद्धी, तं च होइ विष्णाणं । इंदिय-मणोनिमित्तं जो यावरणक्खओवसमो || (विभा ४६६ ) अक्षर की प्राप्ति लब्ध्यक्षर है । इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला श्रुतग्रन्थानुसारी विज्ञान -- -श्रुतज्ञान का उपयोग और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम ये दोनों लब्ध्यक्षर हैं ।
१०. लब्ध्यक्षर के भेद
अक्खरलद्धियस्य लद्धिअक्खरं समुप्पज्जइ, तं जहा - सोइंदियलद्धिअक्खरं चक्खिदियलद्धिअक्खरं, घाणिदिय लद्धिअक्खरं, रसणिदियलद्धिअक्खरं, फासिंदियलद्धिअक्खरं नोइंदियल द्धिअक्खरं । ( नन्दी ५९ )
जो अक्षरलब्धि से सम्पन्न है, उसके लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत) उत्पन्न होता है । लब्ध्यक्षर के छह भेद हैं१. श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर । २. चक्षुरिन्द्रिय लब्ध्यक्षर । ३. घ्राणेन्द्रिय लब्ध्यक्षर ।
४. रसनेन्द्रिय लन्ध्यक्षर ।
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लब्ध्यक्षर के भेद
५. स्पर्शनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर ।
६. नोइन्द्रिय ( मन ) लब्ध्यक्षर ।
यच्छ्रोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रवणे सति शाङ्खोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि विज्ञानं तच्छ्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरं तस्य श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तत्वात् । चक्षुषा आम्रफलाद्युपलभ्याम्रफलमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थ पर्यालोधनात्मकं विज्ञानं तच्चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षरम् ।
( नन्दीमवृप १८८१८९ ) श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द सुनने पर 'यह शंख का शब्द है' — इत्यादि अक्षरमय शब्दार्थ पर्यालोचन से जो ज्ञान होता है, वह श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर है, क्योंकि वह श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से हुआ है ।
आंख से आम्रफल देखने पर 'आम्रफल' इन अक्षरों चक्षुइन्द्रियलब्ध्यक्षर है । से अनुविद्ध शब्दार्थ पर्यालोचनात्मक ज्ञान होता है, वह
लब्ध्यक्षर और संज्ञी-असंज्ञी जीव
असणिणो पंचेंदिया पासंतावि अत्थे घडपडादिणो णोऽभिजाणंति किमवि एयंति । तम्हा पायसो एसो लद्धिअक्खरलंभो सण्णीणं भवति, णो असण्णीणं ति ।
( आवचू १ पृ २८ ) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव घट, पट आदि पदार्थों को देखता हुआ भी नहीं जानता कि 'यह कुछ है' । अतः लब्ध्यक्षर प्रायः संज्ञी के होता है, असंज्ञी के नहीं ।
लब्ध्यक्षरं संज्ञिनामेव पुरुषादीनामुपपद्यते नासंज्ञिनामेकेन्द्रियादीनां तेषामकारादीनां वर्णानामवगमे उच्चारणे वा लब्ध्यसम्भवात् न हि तेषां परोपदेशश्रवणं सम्भवति येनाकारादिवर्णानामवगमादि भवेत् अथचकेन्द्रियादीनामपि लब्ध्यक्षरमिष्यते, तथाहि पार्थिवादीनामपि भावश्रुतमुपवर्ण्यते । तेषां तथाविधक्षयोपशमभावत: कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति यद्वशदक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं तथाहि - तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव ततस्तेषामपि कश्चिदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या । ( नन्दीमवृप १८८ ) लब्ध्यक्षर अक्षरानुविद्ध ज्ञान है इसलिए वह समनस्क जीवों के ही हो सकता है । अमनस्क जीव अक्षर को पढ़ नहीं सकते और उसके उच्चारण को
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