________________
अकार के स्व-पर पर्याय
समझ नहीं सकते ।
है ।
अतः उनके लब्ध्यक्षर संभव नहीं
किन्तु पृथ्वी आदि केन्द्रिय जीवों में भावश्रुत होने का उल्लेख है । ज्ञानावरण के किचित् क्षयोपशम के कारण उनको अल्पतम अव्यक्त अक्षर लाभ होता । उससे अमनस्क जीवों में अक्षरानुषक्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इस तथ्य की पुष्टि के लिए आहार आदि की अभिलाषा की चर्चा की गई है। अभिलाषा का अर्थ है - मुझे वह वस्तु मिले - यह अभिलाषा अक्षरानुविद्ध होती है इसलिए एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में अव्यक्त अक्षरलब्धि care स्वीकार्य है ।
( एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीव ध्वनि के प्रकम्पनों को पकड़ लेते हैं और उन्हें अव्यक्त अक्षर के रूप में बदल लेते हैं। इसे फेक्स मशीन की प्रक्रिया से समझा जा सकता है 1 )
एकेन्द्रिय में लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत)
"दव्वसुयाभावम्मि वि भावसुयं सुत्तजइणो व्व ॥ एकेन्द्रियाणामपि सामग्रीवैकल्याद् यद्यपि द्रव्यश्रुताभावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपशमरूपं भावश्रुतमवसेयम् । (विभा १०१ मवु पृ ५७ )
यद्यपि मन आदि कारण सामग्री के अभाव में एकेन्द्रिय प्राणियों में द्रव्यश्रुत नहीं होता, फिर भी श्रुतआवरण के क्षयोपशमरूप भावश्रुत होता ही है । जैसेसुप्त साघु में भावश्रुत होता है।
जह सुमं भाविदियनाणं दविदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ ( विभा १०३ )
जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में पौद्गलिक इन्द्रियों के अभाव में भी भावेन्द्रियां होती हैं, वैसे ही उनमें शब्दात्मक ज्ञान न होने पर भी भावश्रुत होता है । दव्वसुयं सण्णा वंजणक्खरं भावसुत्तमियरं तु । ( विभा ४६७ ) संज्ञाक्षर और व्यञ्जनाक्षर भावश्रुत के कारण होने से द्रव्यश्रुत हैं । लब्ध्यक्षर भावश्रुत है । ११. अक्षरों के संयोग अनन्त
संजुत्ता-संजुत्ताण ताणमेकखराइसंजोगा । होंति अनंता तत्थ वि एक्केकोऽणंतपज्जाओ ।।
Jain Education International
६३७
----
श्रुतज्ञान
एक्केक्कमक्खरं पुण स-परपज्जायभेयओ भिन्नं । सव्वदव्व-पज्जायरासिमाणं
तं
॥
( विभा ४४५, ४७७ ) संयुक्त (अब्धि, सिद्धि) और असंयुक्त (घट, पट आदि) अक्षरों के संयोग अनन्त हैं। एक-एक अक्षरसंयोग के स्व-पर- पर्याय अनन्त हैं । प्रत्येक संयोग अनन्त पर्याय वाला होता है । प्रत्येक अक्षर के स्वपर्याय और परपर्याय सब द्रव्यों की पर्यायराशि के तुल्य हैं ।
१२. अकार के स्व- पर पर्याय
जे लभइ केवल सेसवन्नसहिओ व पज्जवेऽयारो । ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जया सव्वे ॥ यानुदात्ताऽनुदात्त सानुनासिक - निरनुनासिकादीनात्मगतान् पर्यायान् केवलोऽन्यवर्णेनाऽसंयुक्तः, अन्यवर्ण संयुक्तो वाsकारो लभतेऽनुभवति ते तस्य स्वपर्यायाः प्रोच्यन्ते, अस्तित्वेन संबद्धत्वात्, ते चाऽनन्ता: .............. घटादिगताश्चाऽस्य परपर्यायाः, तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन नास्तित्वेन संबन्धात् । ( विभा ४७८ मवृ पृ २२२ )
अकार के अन्य वर्णों से असंयुक्त उदात्त - अनुदात्त आदि पर्याय अथवा संयुक्त पर्याय अस्तित्व से संबद्ध होने के कारण स्वपर्याय हैं । वे अनन्त हैं। शेष घट आदि के पर्याय नास्तित्व से सम्बद्ध होने के कारण अकार के परपर्याय हैं ।
एगमेगस्स अक्खरस्स दुविहा पज्जाया भवंति । तं जहा --- सपज्जाया असपज्जाया य । तत्थ जे ते सपज्जाया ते दुविहा, तं जहा - संबद्धा असंबद्धा य । जेऽवि असपज्जाया तेऽवि दुविहा, तं जहा - संबद्धा असंबद्धा य । एत्थणिय-रिसणं- अकारो । अकारस्स जे सपज्जाया ते अस्थित्तेण संबद्धा णत्थित्तेण असंबद्धा । ते चेव अकारपज्जाया अण्णेसि अत्थित्तेण असंबद्धा णत्थित्तेण संबद्धा । तहा जे असपज्जाया अकारस्स ते णत्थित्तेण संबद्धा, अत्थित्तेण असंबद्धा । ते चेव अकारस्स असपज्जाया अन्नेसि अत्थितेण संबद्धा णत्थित्तेण असंबद्धा ।
( आवचू १२८, २९) प्रत्येक अक्षर के दो-दो प्रकार के पर्याय होते हैं - स्वपर्याय और परपर्याय । इनके दो-दो प्रकार हैं— सम्बद्ध और असम्बद्ध । जैसे अकार के स्वपर्याय उसके अपने अस्तित्व से सम्बद्ध हैं और नास्तित्व से असम्बद्ध हैं । अकार के वे ही स्वपर्याय अन्य अक्षरों के अस्तित्व से
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org