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अक्षरश्रुत के प्रकार
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श्रुतज्ञान प्रच्यवन नहीं होता। ऋजुसूत्र आद्धि शुद्ध नयों की दृष्टि जहा–वट्टो ठकारो, वज्जागिती वकारो। में ज्ञान क्षर है-अनुपयोग अवस्था में उसका प्रच्यवन
(आवचू १ पृ २६) होता है। उपयोग अवस्था में ही ज्ञान होता है।
हंसलिपि आदि अठारह प्रकार की लिपियों से सम्बद्ध शुद्ध नय की दृष्टि में सर्व पदार्थ उत्पाद और व्यय ।
अक्षरों का आकार संज्ञाक्षर है। जैसे-अर्धचन्द्राकार स्वभाव वाले हैं, अतः क्षर हैं । ज्ञान भी उत्पाद-व्ययशील
टकार, घटाकार वृत्त ठकार, वज्राकार वकार । होने से क्षर है-अभिलाप विज्ञान की अपेक्षा से यह
____ अक्षरस्य पट्टिकादौ संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः अक्षरता-अनक्षरता प्रतिपादित है।
संज्ञाक्षरमुच्यते । तच्च ब्राह्मयादिलिपिभेदतोऽनेकप्रकारम् ।
तत्र नागरी लिपिमधिकृत्य किञ्चित्प्रदर्यते-मध्ये स्फाटितघट, व्योम आदि अभिलाप्य पदार्थ द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से नित्य हैं, अतः अक्षर हैं। पर्यायास्तिक नय
चुल्लीसन्निवेशसदृशो रेखासन्निवेशो णकारो, वक्रीकी अपेक्षा से अनित्य हैं, अतः क्षर हैं ।
भूतश्वपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि ।
(नन्दीमत् प १८८) रूढ़ि से वर्ण ही अक्षर
पट्टिका आदि पर संस्थापित अक्षर की संस्थानाकृति जइ विह सव्वं चिय नाणमक्खरं तह वि रूढिओ वन्नो ।'" संज्ञाक्षर कहलाती है। वह संस्थान अनेक प्रकार का है।
विभा ४५९) जैसे ब्राह्मी लिपि आदि । नागरी लिपि के उदाहरणयद्यपि च सर्व ज्ञानमविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथाऽपीह मध्य में स्फाटित चुल्ही सन्निवेश की तरह रेखासन्निवेश श्रुतज्ञानस्य प्रस्तावादक्षरं श्रुतज्ञानमेव द्रष्टव्यं, न शेषं, वाला णकार। कुत्ते की टेढी पंछ की आकृति वाला इत्थम्भूतभावाक्षरकारणं वाऽकारादि वर्णजातं ततस्त- ढकार । दप्युपचारादक्षरमुच्यते । (नन्दीमत् प १८७,१८८) लिपि के अठारह प्रकार _सब ज्ञान सामान्य रूप से अक्षर हैं, फिर भी यहां हंसलिवी भूयलिवी जक्खी तह रक्खसी य बोधव्वा । श्रुतज्ञान का प्रसंग होने से श्रुतज्ञान ही अक्षर है, शेष उड्डी जवणि तुरुक्की कीरी दविडी य सिंधविया ।। ज्ञान नहीं। इस प्रकार के भावश्रुत (भाव अक्षर) का
मालविणी नडि नागरी लाडलिवी पारसी य बोधव्वा । कारणभूत अकार आदि जो वर्णसमूह है, उपचार से वह तह अनिमित्ती न लिवी चाणक्की मूलदेवी य॥ भी अक्षर कहलाता है।
(विभामवृ १ पृ २१७)
१. हंसलिपि ६. अक्षरश्रुत के प्रकार
१०. सैन्धवी २. भूतलिपि
११. मालविनी अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा
३. यक्षी
१२. नटी १. सण्णक्खरं २. वंजणक्खरं ३. लद्धिअक्खरं ।
४. राक्षसी
१३. नागरी (नन्दी ५६) ५. उड़िया
१४. लाट अक्षरश्रुत के तीन प्रकार हैं
६. यवनानी
१५. पारसी १. संज्ञाक्षर, २. व्यञ्जनाक्षर, २. लब्ध्यक्षर ।
७. तुरुष्की
१६. अनिमित्ती अक्खरं तिविहं-नाणक्खरं अभिलावक्खरं वण्णक्खरं
८. कीरी
१७. चाणक्यी च।
(नन्दीचू पृ ४४) ९. द्राविडी
५८. मूलदेवी अक्षर के तीन प्रकार हैं-ज्ञानाक्षर, अभिलाप्याक्षर
(समवाओ, पन्नवणा, भूवलय-इन ग्रन्थों में अठा—ज्ञेयाक्षर और वर्णाक्षर ।
रह लिपियों के नाम कुछ प्रकारभेद से मिलते हैं। देखेंसंशाक्षर की परिभाषा
समवाओ १८/५ का टिप्पण) . सम्णक्खरं--अक्खरस्स संठाणागिई। (नन्दी ५७) व्यञ्जनाक्षर ......"सुबहुलिविभेयनिययं सण्णक्खरमक्खरागारो। वंजणक्चरं-अक्खरस्स वंजणाभिलावो। (नन्दी ५८)
(विभा ४६४) अक्षर का उच्चारण करना व्यञ्जनाक्षर है।
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