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श्रमण की दिनचर्या
दर्शन आचार में प्रमत्त
आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो अपfsyre थद्धे, पावसमणि त्ति
पडितप्पइ । वुच्चई | ( उ १७/५)
जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से चिन्ता नहीं करता --उनकी सेवा नहीं करता, जो बड़ों का सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह दर्शनाचार में प्रमत्त श्रमण है ।
चारित्र आचार में प्रमत्त
सम्ममाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्नमाणे, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ बहुमाई पमुहरे, थद्धे लुद्धे afroad | संविभागी अचित्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥
वावडे |
सयं गेहं परिचज्ज, परगेहंसि निमित्तेण य ववहरई, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ सन्नाइ पिण्डं जेमेइ, नेच्छई सामुदायिं । गिहिनिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ ( उ १७/१७-१९ ) जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में चला जाता है, जो छह मास की अवधि में एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, जिसका आचरण निन्दनीय है, जो अपना घर छोड़कर ( प्रव्रजित होकर ) दूसरों के घर में व्यापृत होता है, उनका कार्य करता है, जो शुभाशुभ बताकर धन का अर्जन करता है, जो अपने ज्ञातिजनों के घरों में भोजन करता है किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह वीर्याचार में प्रमत्त श्रमण ( उ १७६,११)
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द्वीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और मर्दन करने वाला, असंयमी होते हुए भी संयमी मानने वाला चारित्राचार में प्रमत्त है ।
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हरियाली का अपने आपको
श्रमण होता
भक्त-पान
जो बहुत मायावी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह चारित्राचार में प्रमत्त श्रमण है । तप आचार में प्रमत्त
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दुदही विगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अ य तवकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चई || अत्यंतम्मिय सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ, पावसमणि त्ति बुच्चई ॥ ( उ १७/१५,१६) जो दूध, दही आदि विकृतियों का बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता रहता है तथा 'ऐसा नहीं करना चाहिए - इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहीं, वह तप आचार में प्रमत्त श्रमण है ।
वीर्य आचार में प्रमत्त
आयरियपरिच्चाई,
परपासंडसेवए ।
गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणि त्ति बुच्चई |
श्रमण
अप्रमत्त श्रमण
अप्पमत्त संजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया अहालंदिया पडिमा पडिवण्णगा य एते सततोवयोगोवउत्तणतो अप्पमत्ता । गच्छवासिणो पुण पमत्ता, कण्डुइ अणुवयोगसंभवतातो | अहवा गच्छवासी णिग्गता य पमत्ता वि अप्पमत्ता विभवंति परिणामवसओ । ( नन्दीचू पृ २२ )
जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दिक और प्रतिमा प्रतिपन्न - ये संयत अप्रमत्त होते हैं, सतत उपयोग उपयुक्त ( जागरूक ) होते हैं ।
गच्छवासी सतत उपयोग उपयुक्त नहीं होने के कारण प्रायः प्रमत्त होते हैं । अथवा गच्छवासी और गच्छनिर्गतये दोनों प्रकार के भ्रमण परिणामधारा के आधार पर प्रमत्त और अप्रमत्त होते हैं ।
६. श्रमण की दिनचर्या
पुव्विलंमि चउब्भाए, आइच्चमि समुट्ठिए । भंडयं पडिलेहिता, वंदित्ता य तओ गुरुं ॥ पुच्छेज्जा पंजलिउडो, कि कायव्वं मए इहं ? | इच्छं निओइडं भंते ! वेयावच्चे व सज्झाए | वेयावच्चे निउत्तेण, कायव्वं अगिलायओ । सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥
( उ २६ ८-१० ) सूर्य के उदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथमचतुर्थ भाग में भाण्ड - उपकरणों की प्रतिलेखना करे । तदनन्तर गुरु को वन्दना कर, हाथ जोड़कर पूछे- अब
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