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श्रमण
२१. तेजस्कायसंयम
२२. वायुकायसंयम
२३. वनस्पतिकायसंयम २४. जसकायसंयम
३. श्रमण की पृष्ठभूमि
कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंतो, संकष्पस्स वसं गओ ॥
(द २९) वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषयराग ) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प ( काम अध्यवसाथ) के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है ?
काम ! जानामि ते रूपं संकल्पात् किल जायसे । न ते संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ।
( अचू पृ ४१ ) काम ! मैं तुझे जानता हूँ तू संकल्प से पैदा होता
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तू मेरे मन में
है मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा
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उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा ।
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समाए हाए परिव्ययंतो सिया मणी निस्सरई बहिदा नसा महं नोवि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।। आयावया ही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए । (द २/४,५ )
२५. योगयुक्तता
२६. वेदना अधिसहन
२७ मारणांतिक अधिसन
समदृष्टि पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन ( संयम से) बाहर निकल जाए तो यह विचार करे कि वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूं मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषयराग को दूर करे।
कामविजय और भावसमाधि प्राप्त करने के
उपाय
• आतापना
• द्वेष का उच्छेद
४. भ्रमण के एकार्थक
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०
सौकुमार्य का त्याग
० राग का विनयन |
पव्वइए अणगारे पासंडी चरक तावसे भिक्खु परिवायए य समणे णिग्गंथे संजए मुत्ते ॥ तिण्णे णेया दविए मुणी य खंते य दंत विरए य । हे तीरी विय हवंति समणस्स णामाई ॥ (दनि ६५, ६६ )
६१६
० प्रव्रजित – गृहनिर्गत
० अनगार गृहरहित
• पाषंडी - अष्टकर्म प्रासाद का बंसी
० चरक - तपस्या का आचरण करने वाला तपस्या करने वाला
• तापस
०
भिक्षु
भिक्षाजीवी
० परिवाजक पाप का अपहरण करने वाला
० समन - समान मन वाला
० निर्ग्रन्थ - बाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थि से शून्य • संयत असा आदि से ओतप्रोत
प्रमत्त भ्रमण
•
मुक्त स्नेह आदि बंधनों से मुक्त ० तीर्ण - संसार सागर को तैरने वाला
० नेता - सिद्धि तक पहुंचाने वाला
० द्रव्य - राग-द्वेष से
शून्य
• मुनि - सावद्य न बोलने वाला क्षमाशील
• क्षान्त
० दान्त ० विरत
• रूक्ष प्रान्त रूवासेवी, स्नेह वर्जित • तीरार्थी -- संसार सागर से पार
-
इन्द्रिय और कषायों का दमन करने वाला प्राणातिपात आदि से विरत
५. प्रमत्त श्रमण
ज्ञान आचार में प्रमत्त
सेज्जा दहा पाउरणं मे अत्थि,
उप्पज्जई भोक्तुं तहेब पाउं ।
जाणामि जं बट्टई आउ ! ति
कि नाम काहामि सुरण भंते ! ॥ जे के इमे पव्वइए, निद्दासीले पगामसो । भोच्चा पेच्या मुहं सुबइ पावसमणि ति वुच्चई ॥ ( उ १७।२, ३)
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(गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर जो कहता है--) मुझे रहने के लिए अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूं। भंते! फिर में भूत का अध्ययन कर क्या करूंगा ?
गुरु कहते हैं जो प्रवजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पीकर आराम से लेट जाता है, वह ज्ञानाचार में प्रमत्त श्रमण है ।
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