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अनुशासन और शिष्य
शिष्य
अप्पं चाऽहिक्खिवई, पबंधं च न कुव्वई । अपवादविधि से प्रतिपादन करना आज्ञानिर्देश है। उसके मेत्तिज्जमाणो भयई, सूयं लद्धं न मज्जई ।। अनुरूप अनुष्ठान करने वाला शिष्य आज्ञानिर्देशकर कहन य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई । लाता है । अथवा 'यह ऐसे करो, यह ऐसे करो'- इस अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई। प्रकार के आज्ञानिर्देश का पालन करने वाला आज्ञानिर्देशकलहडमरवज्जए, बुद्धे अभिजाइए। कर कहलाता है। हिरिमं पडिसंलीणे, सूविणीए त्ति वुच्चई। गुरु-उपपातकारक
(उ ११।१०-१३) आचार्यादीनां उपपातः दृग्वचनविषयदेशावस्थानं सुविनीत शिष्य के पन्द्रह लक्षण
तत्कारक..... तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशादिभीत्या तव्य१. जो नम्र व्यवहार करता है ।
वहितदेशस्थायी।
(उशाव प ४४) २. जो चपल नहीं होता ।
___ जहां बैठा हुआ शिष्य गुरु को दृग्गोचर होता रहे, ३. जो मायावी नहीं होता।
जहां बैठा हुआ वह गुरु के वचन को सुन सके, उतनी दूरी ४. जो कुतुहल नहीं करता।
तक बैठना उपपात है। जो इसका पालन करता है, वह ५. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता।
उपपातकारक कहलाता है। वह इस भय से दूर नहीं ६. जो क्रोध को टिकाकर नहीं रखता ।
बैठता कि कहीं गुरु मुझे कुछ आदेश न दे दें। ७. जो मित्रभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है। इंगित-आकारसम्प्रज्ञ ८. जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता।
इंगितं-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् ९. जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं शिरःकम्पादि. आकारः .. स्थलधीसंवेद्यः । करता।
भावाभिव्यजको दिगवलोकनादिः। अनयोर्द्वन्द्वे इंगिता१०. जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता।
कारी तो अर्थाद् गुरुगतौ सम्यक प्रकर्षेण जानाति ११ जो अप्रिय मित्र की भी एकांत में प्रशंसा करता इंगिताकारसंप्रज्ञः। यद्वा इंगिताकाराभ्यां गुरुगतभाव
परिज्ञानमेव कारणे कार्योपचाराद इंगिताकारशब्देनोक्तं १२. जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है। तेन सम्पन्नो-युक्तः।।
(उशाव प ४४) २३. जो कुलीन होता है।
अत्यन्त निपुणमति के द्वारा जानने योग्य प्रवृत्ति १४. जो लज्जावान होता है।
और निवत्ति के सूचक भ्र कंपन, शिरःकम्पन आदि सूक्ष्म १५. जो प्रतिसंलीन-इन्द्रिय और मन का संगोपन चेष्टाएं इंगित हैं। करने वाला होता है।
स्थूलबुद्धि के द्वारा ज्ञेय, प्रस्थान आदि के भावों को अन्य तीन लक्षण
अभिव्यंजित करने वाली दिग अवलोकन आदि स्थल आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए । चेष्टाएं आकार हैं। इंगियागार-संपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चइ ।।
आगारिगियकुसलं जइ सेयं वायसं वए पुज्जा।
(उ ११२) तहवि य सि न विकूडे विरहम्मि य कारणं पुच्छे ।। १. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता
(विभा ९३३)
इंगित-आकार को जानने वाला विनीत शिष्य २. जो गुरु की शुश्रुषा करता है।।
'कौआ सफेद है' -गुरु के इस कथन को भी सहजता से ३. जो गुरु के इंगित और आकार को जानता है। स्वीकार कर लेता है । जिज्ञासा होने पर एकांत में गुरु से आज्ञा-निर्देशकर
इसका रहस्य पूछता है। आज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देशाउत्सर्ग- २. अनुशासन और शिष्य अपवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिद- जं मे बुद्धाणसासंति, सीएण फरुसेण वा । मित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा मम लाभो त्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ।। आज्ञानिर्देशकरः ।
(उशावृ प ४४) अणुसासण मोवायं, दुक्क डस्स य चोयणं । अर्हत् कथित आगमरूप आज्ञा का उत्सर्ग और हियं तं मन्नए पण्णो, वेसं होइ असाहुणो ॥
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