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शिक्षा की अर्हता
द्वारा पिरोई गई माला के रत्नों के समान विपर्यस्त न हो । अस्खलित- जो विषम भूमि पर स्खलित गति से चलने वाले हल के समान न हो । अमीलित पद-वाक्य - विजातीय
धान्य के समान जिसके पद, वाक्य आदि आपस में मिले हुए न हों अथवा जिसके पदच्छेद, वाक्यविच्छेद आदि मिले हुए नहीं ।
अभ्यत्या डित - जिसमें विविध शास्त्रों के वाक्यों का मिश्रण न 'अथवा जो कोलिक - पायस या भेरीकन्या के समान न हो ।
परिपूर्ण - जो मात्रा आदि से निश्चित परिमाण वाला हो तथा जिसमें आकांक्षा - क्रिया आदि के अध्याहार की अपेक्षा न हो ।
पूर्णघोष - परावर्तन काल में उदात्त आदि घोषों से परिपूर्ण उच्चारण हो ।
कण्ठौष्ठ विप्रमुक्तकण्ठ, होठ आदि से स्पष्ट उच्चारण हो । जो बाल, मूक आदि के कथन के समान अव्यक्त न हो । गुरुवाचनोपगत - जो गुरु के द्वारा साक्षात् पढ़ाया हुआ हो, पुस्तक से पढ़ा हुआ न हो अथवा गुरु दूसरे को पढ़ा रहे हों, उसे सुनकर सीखा हुआ न हो ।
५. श्रुत-अध्ययन के उद्देश्य
खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा १. सुयं मे भविस्सइ त्ति अभाइयव्वं भवइ । २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ४. ठिओ परं ठाव इस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (द ९/४/५ )
श्रुत-समाधि ( श्रुताध्ययन) के चार हेतु --
१. मुझे श्रुत का लाभ होगा, ज्ञान बढ़ेगा । २. मैं एकाग्र चित्त हो पाऊंगा । ३. मैं स्वयं को धर्म में स्थापित करूंगा ।
४. मैं स्वयं धर्म में स्थापित होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूंगा ।
तम्हा यम हिट्ठेज्जा, उत्तम गवेस । जेणपाणं परं चेव, सिद्धि संपाउणेज्जासि ॥
( उ ११।३२)
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श्रुत - अध्ययन के तीन प्रयोजन हैं१. परम अर्थ (मोक्ष) की खोज ।
२. स्वयं सिद्धि प्राप्त करने की अर्हता । ३. दूसरों को सिद्धि प्राप्त कराने की क्षमता । अज्झष्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ ( अनु ६३१ )
अध्ययन के तीन उद्देश्य हैं -
• अध्यात्म की उपलब्धि ।
उपचित कर्मों का अपचय / क्षय ।
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• नये कर्मों का अनुपचय / निरोध |
शिक्षा
जेण सुहज्झप्पजणं अज्झष्पाणयणमहियमयणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व जं तमज्झयणं ॥ ( विभा ९६० ) जिससे शुभ चित्त का निर्माण होता है, अध्यात्म की उपलब्धि होती है तथा जिससे बोधि, संयम और बन्धनमुक्ति के तथ्यों की अधिक प्राप्ति होती है, वह अध्ययन है ।
६. शिक्षा की अर्हता
उवहिजो गदव्व देसे काले परेण विणएणं । चित्तण्णू अणुकूलो सीसो सम्मं सुयं लहइ ||
( विभा ९३७ ) देश और काल
गुरु का अतिशय विनय करने वाला, के अनुकूल द्रव्य - अंशन, पान, वस्त्र, पात्र, औषध आदि उपलब्ध कराने वाला, अभिप्राय को जानने वाला अनुकूल शिष्य सम्यक् श्रुत को प्राप्त करता है ।
विणओएहि कयपंजलीहि छंदमणुअत्तमाणेहि । आराहिओ गुरुजणो सुयं बहुविहं लहुं देइ || ( आवनि १३८ ) जो शिष्य विनीत है, बद्धांजलि होकर गुरु से बात करता है, गुरु के अभिप्राय का अनुवर्तन करता है, जो गुरुजनों की आराधना करता है, उसे गुरु विविध प्रकार का ज्ञान शीघ्र करा देते हैं ।
जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । तेसि सिक्खा पवति, जलसित्ता इव पायवा ।। (द ९/२/१२)
जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते हैं, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष ।
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