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________________ परिहारविशुद्धि चारित्र ६०५ शासन-भेद अचेलं --चेलाभावो जिनकल्पिकादीनाम् । अन्येषां परिहारविशुद्धि चारित्र प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर तु भिन्नमल्पमूल्यं च चेलमप्यचेलमेव । (उशाव प ८२) के समय में ही होता है ।। अचेल के दो अर्थ हैं (भगवान् पार्श्व और भगवान महावीर के शासन-भेद १. वस्त्र का अभाव या वस्त्र न रखना । इस अपेक्षा सहित से जिनकल्प मुनि अचेल होते हैं। भगवान पार्श्व भगवान् महावीर २. अल्प परिमाण में और अल्पमूल्य वाले वस्त्र १. चातुर्याम १. पांच महाव्रत रखना, अखंड वस्त्र ग्रहण न करना। २. सामायिक चारित्र २. छेदोपस्थापनीय चारित्र ५. वेश के प्रति दृष्टिकोण ३. रात्रिभोजन न करना ३. रात्रिभोजन न करना पच्चयत्थं य लोगस्स, नानाविहविगप्पणं ।... उत्तर गुण मूल गुण ४. सचेल ४. अचेल अह भवे पइण्णा उ, मोक्खसन्भूयसाहणे । ५. दोष होने पर प्रतिक्रमण ५. नियमतः दो बार नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं चेव निच्छए । प्रतिक्रमण (उ २३।३२,३३) ६. औद्देशिक--एक साधु के ६. औद्देशिक—एक साधु व्यावहारिक दृष्टिकोण ----- लिए बने आहार का दूसरे के लिए बने आहार लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए द्वारा ग्रहण का दूसरे द्वारा वर्जन। नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। ७. राजपिण्ड का ग्रहण ७. राजपिण्ड का वर्जन नैश्चयिक दृष्टिकोण ८. मासकल्प का अनियम । ८. मासकल्प का नियम यदि मोक्ष के वास्तविक साधन की प्रतिज्ञा हो तो जीवन-भर एक गांव -एक स्थान में एक निश्चय-दष्टि में उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र में रहने का विधान । मास से अधिक न कीचड़ और जीव-जन्तु न रहने का विधान । ६. अचेलता के परिणाम हो उस स्थिति में वर्षा- वर्षकाल में बिहार न काल में भी विहार का करने का विधान। पडिरूवयाए णं लावियं जणयइ । लहभूए णं जीवे विधान । अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइ ९. पर्युषण कल्प का ९. पर्युषण कल्प का समत्ते सव्वपाणभूय-जीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे अनियम। नियम । जघन्यतः जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।। भाद्रव-शुक्ला पंचमी (उ २९।४३) से कार्तिक शुक्ला प्रतिरूपता (अचेलता) से जीव हल्केपन को प्राप्त होता पंचमी तक और है । उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव उत्कृष्टतः आषाढ़ अप्रमत्त, प्रकटलिंग वाला, प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध पूर्णिमा से कार्तिक सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप पूर्णिमा तक एक स्थान में रहने का नियम। वाला, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल १०. १०. परिहार विशुद्धि चारित्र । तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता । विस्तृत जानकारी के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १२३-१३१) ७. परिहारविशुद्धि चारित्र ठियकप्पे च्चिय नियमा दो पुरिसजुगाइं ते होंति ।। (विभा १२७६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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