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व्याकरण
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व्याकरण के अंग
३. धातु-भू (सत्ता), एध (वद्धि) आदि धातुएं । आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति होती है---हे जुवाण ! ४. निरुक्ति-अक्षरार्थ। जैसे-भ्रमति च रौति हे युवक ! आदि।
च-भ्रमण और गुंजारव करता है, इसलिए (वयण विभत्ती) वित्थरो सिं सद्दपाहुडातो नायव्वो भ्रमर । मह्यां शेते--पृथ्वी पर सोता है इसलिए पुव्वणिग्गतेसु वा बागरणादिसु । (अनुचू पृ ४७) महिष ।
वचनविभक्ति की विशद व्याख्या पूर्वगत के शब्दप्राभूत - (शब्दसिद्धि और शब्दसंरचना की प्रामाणिकता
में थी । इस समय उसे प्राभूत के आधार पर निर्मित व्याकरण के द्वारा होती है । इस अपेक्षा से समास, तद्धित
व्याकरणों से जानना चाहिए। आदि को भावप्रमाण बतलाया गया है।)
समास .."कारग-समास-तद्धिय-निरुत्तवच्चो वि य पयत्थो।। सत्त समासा भवंति, तं जहा
(विभा १००३)
दंदे य, बहुव्वीही, कम्मधारए, दिऊ तहा । पदार्थ के चार प्रकार हैं
तप्पुरिस व्वईभावे, एगसेसे य सत्तमे । १. कारक-जैसे-पचतीति पाचकः ।
__(अनु ३५०)
समास के सात प्रकार-- २. समास-जैसे-राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः ।
१. द्वन्द्व-जिस समास में सब पदों की प्रधानता हो । ३. तद्धित-जैसे-वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः । ४. निरुक्त--जैसे-ऊर्ध्वकर्ण: उलकः ।
जैसे-दन्तश्च औष्ठश्च-दन्तोष्ठम्, अहिश्च
नकुलश्च-अहिनकुलम् ।। वचनविभक्ति (कारक)
२. बहुब्रीहि-जिस समास में अन्य पदार्थ की अविहा वयण विभत्ती पण्णत्ता, तं जहा
प्रधानता हो । जैसे—पुष्पितकुटजकदम्बः गिरिः । निद्देसे पढमा होइ, बितिया उवएसणे ।
३. कर्मधारय-जिस तत्पुरुष समास में विशेषण तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे।।
और विशेष्य का तुल्यार्थ में प्रयोग हो। जैसेपंचमी च अवायाणे, छटी सस्सामिवायणे ।
धवलो वसहो-धवलवसहो । सत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्रमाऽऽमंतणी भवे ॥
४. द्विगु --जिस तत्पुरुष समास में पूर्वपद संख्या""हंदि नमो साहाए""आधारकालभावे य।
__वाचक होता है । जैसे–त्रिकटुकम्, त्रिसरम् ।
५. तत्पुरुष-जिस समास में उत्तरपद की प्रधानता (अनु ३०८।१,२,४,६)
हो । जैसे-राज्ञः पुरुषः--राजपुरुषः। वचनविभक्ति के आठ प्रकार हैं
६. अव्ययीभाव-जिस समास में पूर्वपद की निर्देश में प्रथमा-सो-वह, इमो-यह आदि ।
प्रधानता हो। जैसे-ग्रामस्य पश्चात् -- उपदेश में द्वितीया-इमं भण-यह कहो आदि ।
अनुग्रामम् । करण में तृतीया---तेण भणियं-उसने कहा आदि । ७. एकशेष-जिस समास में एक समान रूप वाले हंदि, नमो और स्वाहा के योग में तथा सम्प्रदान में
अनेक शब्दों में एक शब्द शेष रहता है। जैसे---- चतुर्थी-उपाध्यायाय गां ददाति-उपाध्याय को
जिनश्च जिनश्च जिनश्च-जिना: । गाय देता है आदि।
पायं पयविच्छेओ समासविसओ तयत्थनियमत्थं । अपादान में पंचमी----इतो गिण्ह-इससे ग्रहण कर पयविग्गहो त्ति भण्णइ सो सुद्धपए न संभवइ ।। आदि ।
(विभा १००६) स्वस्वामिवचन (संबंध) में षष्ठी-तस्स इमं वत्थ इष्ट पदार्थ के नियमन के लिए सामासिक पदों का उसकी यह वस्तु आदि ।
विच्छेद/विग्रह किया जाता है। यथा श्वेतः पटोऽस्येति आधार, काल और भाव में सप्तमी-इमम्मि -- श्वेतपटः । शुद्धपद-एक पद में पदविग्रह संभव नहीं इसमें आदि।
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