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वैयावृत्त्य के परिणाम
६. वैयावृत्त्य के परिणाम
arraच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ ।
( उ २९/४४) वैयावृत्त्य से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का बंध करता है ।
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लाभेण जोजयंतो जइणो लाभंतराइयं हणइ । कुणमाणो य समाहिं सव्वसमाहि लहइ साहू || वेयावच्चे अब्भुट्टियस्स सद्धाए काउकामस्स । लाभो चैव तवस्सिस्स होइ अद्दीणमणसस्स || (ओनि ५३४, ५३७)
जो मुनि आहार, औषधि, उपधि आदि के द्वारा साधुओं की वैयावृत्त्य करता है, वह लाभांतराय कर्म को क्षीण करता है । वह पादप्रक्षालन, प्रक्षण, मर्दन आदि सेवाकार्यों से सेवार्ह साधुओं की चित्तसमाधि में योगभूत बनता है तथा वह स्वयं सर्वसमाधि (शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ) को प्राप्त करता है ।
श्रद्धा (घनीभूत इच्छा) से वैयावृत्य के लिए अभ्युत्थित अदीनमना तपस्वी साधु को निर्जरा का लाभ अवश्य होता है, चाहे उसे आहार आदि का लाभ हो या न हो ।
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जो गिलाणं पडियरइ सो मं पडिअरति । जो मं पडिअरइ सो गिलाणं पडियरति ।
गुरुसाहम्मिय सुस्सू सणयाए णं विणयपडिवत्ति जणयइ । विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चा सायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदोग्गईओ निरंभइ । वण्णसंज
भत्तिबहुमाणय ए
व्याकरण शब्दशास्त्र ।
मणुदेवसग्गओ निबंध व्यंजनावग्रह - इंद्रिय और अर्थ का संबंध | सिद्धि सोग्गइं च विसोहेइ । पसत्थाइं च णं विणयमूलाई ( द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान ) सव्वकज्जाइं साहेइ | अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ । व्यंतर - जो मध्य लोक में पहाड़ों तथा वनों के ( उ २९।५) अन्तरों में रहते हैं, वे देव । ( द्र. देव ) गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय को प्राप्त होता है । विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव - सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है । श्लाघा, गुण- प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव-सम्बन्धी सुगति से संबंध जोड़ता है । सिद्धि और सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । विनयमूलक सब प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर ले आता है ।
(ओनिवृ प ३९ ) जो ग्लान की सेवा करता है, वह मेरी ( तीर्थंकर की ) सेवा करता है । जो मेरी सेवा करता है, वह ग्लान की सेवा करता है ।
वैहायसमरण-मरण का एक प्रकार ।
१. व्याकरण का निर्वचन २. व्याकरण के अंग
• वचन विभक्ति ( कारक )
• समास
० तद्धित
३. लिंग
४. सन्धि
व्याकरण
५. पद
६. नाम की परिभाषा
० प्रकार
(द्र. मरण )
१. व्याकरण का निर्वचन
व्याक्रियन्ते लौकिकाः सामयिकाश्च शब्दा अनेनेति व्याकरणं - शब्दशास्त्रम् । ( आवमवृप २५९ ) जिसके द्वारा लौकिक और सामयिक शब्द व्युत्पन्न किए जाते हैं, वह व्याकरण - शब्दशास्त्र है । २. व्याकरण के अंग
भावप्पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा -- सामासिए तद्धित धाउए निरुत्तिए । ( अनु ३४९ )
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भावप्रमाण के चार प्रकार हैं१. समास - दो या दो से अधिक पदों का परस्पराश्रय भाव से संबंध |
२. तद्धित-तद्धित प्रत्यय का हेतुभूत अर्थ ।
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