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विनय
१. विनय का निर्वचन
जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चातुरंतमुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ॥
विनीयते- अपनीयतेऽनेन कर्मेति विनयः ।
( आवनि १२१७ )
( उशावृ प १६ ) अपनयन
जो आठ प्रकार के कर्मों का विनयन करता है, वह विनय है ।
२. विनय का स्वरूप
अट्ठाणं अंजलिकरणं, तवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सा, विणओ एस वियाहिओ ॥
( उ ३०1३२) अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कह - लाता है।
विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणा किरिया ॥ (विभा ३४६९ ) विनयोपचार, निरभिमानता, गुरुजनपूजा, अर्हत्आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना- ये सभी क्रियाएं विनय हैं ।
३. विनय के सात प्रकार
विणयो सत्तविहो, तं जहा - नाणविणओ दंसणविणओ चरितविणओ मणविणओ वतिविणओ कायविणओ ओवयारियविणओ । ( अचू पृ १४ ) विनय के सात प्रकार हैं-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय और औपचारिक विनय ।
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ज्ञान विनय
जस्स पंचसु वि नाणेसु भत्ती बहुमाणो वा, जे वा एएहि भावा दिट्ठा तेसु सद्दहणं ति नाणविणतो ।
( अचू पृ १४ ) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पांच ज्ञानों के प्रति भक्तिबहुमान के भाव रखना ज्ञान विनय है । अथवा जिन्होंने इन ज्ञानों के माध्यम से भावों को देखा है-तत्त्व को जाना है, उन ज्ञानियों के प्रति श्रद्धाभाव रखना ज्ञान विनय है ।
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विनय के सात प्रकार
दर्शन विनय
दंसणविणतो दुविधो, तं जहा सुस्सूसणाविणतो अणासायणाविणओ य । ( अचू पृ १५ ) दर्शनविनय के दो प्रकार हैं-शुश्रूषाविनय और अनाशातनाविनय ।
शुश्रूषा विनय
सुस्साविणतो अणे गप्पगारो, तं जहा -सक्कारविणतो सम्माणविणतो अब्भुट्ठाणविणतो आसणाभिग्गहो आसणाणुप्पदाणं कितिकम्मं अंजलिपग्गहो एंतस्स अणुगच्छणता ठितस्स पज्जुवासणया गच्छंतस्स अणुव्वयणं । ( अचू पृ १५ ) शुश्रूषा विनय के अनेक प्रकार हैं-सत्कारविनय (वस्त्र आदि देना ), सम्मानविनय (स्तुति करना), अभ्यु - त्थानविनय, आसन अभिग्रहण का अनुरोध, आसन देना, कृतिकर्म / वन्दना करना, हाथ जोड़ना, आगन्तुक के सम्मुख जाना, बैठ जाने पर उसकी पर्युपासना करना, पहुंचाने
जाना... । अनाशातना विनय
अणायणाविणतो पण्णरसविधो, तं जहा -अरहंताणं अणासायणा, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणासायणा एवं आयरियाणं उवज्झायाणं थेर-कुल- गण संघ-संभोगस्स अणासातणा, किरियाए अणासायणा । आभिणिबोहियनाणस्स अणासायणा जाव केवलनाणस्स अणासायणा । एतेसिं पण्णरसहं कारणाणं एक्केक्कं तिविहं, तं जहा - अरहंताणं भत्ती अरहंताणं बहुमाणो अरहंताणं वण्णसंजलणता, एवं जाव केवलनाणं पि तिविहं । सव्वे वि एते भेदा पंचचत्तालीसं । ( अचू पृ १५ ) अनाशातना विनय के पन्द्रह प्रकार हैं-अर्हत्, अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, संभोज, क्रियावाद (आस्तिक), मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान इनकी आशातना न करना अनाशातना विनय है ।
अर्हत् - अनाशातना के तीन प्रकार हैं- १. भक्ति करना २. बहुमान करना ३. वर्णसंज्वलन ( गुणोत्कीर्तन ) करना । इसी प्रकार प्रत्येक के साथ तीन का गुणन करने पर ( १५ x ३) अनाशातना विनय के पैंतालीस भेद होते हैं । चारित्र विनय
चरितविणतो, सो पंचविहो, तं जहा - सामायिय
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