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त्रिपृष्ठ वासुदेव
विनय
अणिआणकडा रामा सव्वेऽवि अ केसवा निआणकडा। राजा विश्वभूति मुनि पर्याय में जब गाय के धक्के उड्ढंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ से गिर पड़ा तब उसने निदान किया-यदि मेरी तपस्या, वासुदेवाः सप्तरत्नाधिपा: अर्द्धभरतप्रभवः । नियम और ब्रह्मचर्य का फल हो तो भवान्तर में मैं अमित
(आवनि ४०२,४१२,४१५, मवृ प ७९) बल वाला होऊं। उसने आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं सभी वासुदेव नील वर्ण वाले और सभी बलदेव श्वेत किया। वह महाशुक्र कल्प में उत्पन्न हुआ। वहां से वर्ण वाले होते हैं।
च्यवकर वह रानी मृगावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। वासुदेव सात रत्नों के स्वामी और अर्धभरतक्षेत्र रानी ने सात स्वप्न देखे । स्वप्नपाठकों ने उसे प्रथम (तीन खंड) के अधिपति होते हैं। वे प्रव्रज्या स्वीकार वासुदेव घोषित किया। तीन पृष्ठकरण्डक होने से उसका नहीं करते । सभी वासुदेव निदान करते हैं और अधोगति नाम त्रिपृष्ठ रखा गया । में जाते हैं।
त्रिपृष्ठ : महावीर का अठारहवां भव (द्र. तीर्थकर) __ सभी बलदेव प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं। वे निदान (शेष वासुदेवों के निदान आदि से संबंधित विवरण नहीं करते और ऊर्ध्वगति (स्वर्ग या मोक्ष) में जाते हैं। के लिए देखें-समवाओ पइण्णगसमवाओ सूत्र २३८३. वासुदेव का बल
२४७ तथा उनके टिप्पण) सोलस सयसहस्सा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं ।
वासुपूज्य-बारहवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मी ठियं संतं ।। विकृति–दूध, दही आदि पदार्थ । घेत्तण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं ।
(द्र. रसपरित्याग) भुंजिज्ज विलिंपिज्ज व महुमहणं ते न चाएंति ॥ विद्या-देवी-अधिष्ठित मंत्र। (द्र. मंत्रविद्या)
(आवनि ७१,७२) वासुदेव वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम के कारण विनय-विनम्रता । आचार । शिक्षा। अतिशय बलसम्पन्न होते हैं। सोलह हजार राजा अपनी
१. विनय का निर्वचन चतुरंगिणी सेना के साथ होने पर भी पतट पर स्थित,
२. विनय का स्वरूप सांकल से बद्ध वासुदेव को खींच नहीं सकते । वासुदेव
३. विनय के सात प्रकार सांकल को पकड़कर अपने बायें हाथ से उन्हें खींच सकते
० ज्ञान विनय
० दर्शन विनय (वासुदेव में चक्रवर्ती की अपेक्षा आधा-२० लाख | . चारित्र विनय अष्टापद जितना बल होता है।)
० मन-वचन विनय
० काय विनय ४. त्रिपृष्ठ वासुदेव
० औपचारिक विनय सो य विस्सभूती अणगारो"तत्थंतरा सो सूतियाए । ४. विनय के अन्य प्रकार गावीए सोल्लितो पडिततो""सो णियाणं करेति, जदि ५. मोक्ष विनय इमस्स तवनियमबंभचेरस्स अत्थि फलं तो आगमेस्साणं ० प्रतिरूपयोग विनय अपरिमियबलो भवामि, ताहे सो तत्थ अणालोइयपडिक्कतो ० अनाशातना विनय महासुक्के उववन्नो ।..."महासुक्कातो चुतो तीसे | ६. विनय की निष्पत्ति मिगावतीए कुच्छिसि उववन्नो, सत्त सुविणा दिट्ठा, सुविण- | * विनयसमाधि
(द्र. समाधि) पाढएहिं पढमवासुदेवो आदिट्ठो, कालेण जातो, तिन्नि * विनय : तप का एक भेद
(द्र. तप) पिटुकरंडगा तेण से तिविठ्ठत्ति णामं कतं ।
* विनीत शिष्य के गुण
(द्र. शिष्य) * विनीत : शिक्षा का अधिकारी (द्र. शिक्षा) (आवचू १ पृ २३१,२३२) ।।
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