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वाद
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मार्गज्ञ, नर्तकी और तैराक का दृष्टांत
और अंधा दौड़ता हुआ भी आग की चपेट में आ जाता जाऊं? मैं तुम्हें दूर तक मार्ग दिखाने में समर्थ हैं,
किन्तु मैं पंगु हूं, इसलिए तुम मुझे अपने कंधे पर
बिठाओ। मैं सर्प, कांटे, अग्नि आदि सभी बाधाओं अंध और पंगु का दृष्टान्त
से दूर रखते हुए सुखपूर्वक तुम्हें नगर में पहुंचा दूंगा। एगंमि महाणगरदाहे अंधलगपंगुलगा दो अणाहा। अंधे ने पंग के प्रस्ताव को स्वीकार किया। उसने पंग णगरजणे जलणसंभमुब्भंतलोयणे पलायमाणे पंगुलओ को अपने कंधे पर बिठाया। पंग के पास दष्टि थी और गमणकिरियाऽभावातो जाणतोऽवि पलायणमग्गं कमागतेण अंधे के पास पैर थे। दोनों मिलकर कुशलता से नगर में अग्गिणा दड्ढो, अंधोऽवि गमणकिरियाजुत्तो पलायण- पहंच गए । मग्गमजाणतो तुरितं जलणतेण गंतुं अगणिभारयाए संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न ह एगचक्केण रहो पयाइ । खाणीए पडिऊण दड्ढो। (आवचू १ पृ ९६) अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥
एक महानगर में आग लग गई । वहां दो अनाथ णाणं पयासगं, सोहगो तवो संजमो य गुत्तिकरो । व्यक्ति रहते थे । एक पंगु और दूसरा अंधा । अग्नि से तिण्डंपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ भयभीत हुए नागरिक जन अपने-अपने बचाव के लिए
(आवनि १०२,१०३) दौड़ने लगे । पंगु व्यक्ति उन्हें दौड़ते हुए देख रहा था,
__दो का संयोग मिलने पर ही कार्य की निष्पत्ति पर वह दौड़ने में असमर्थ था। वह बचाव का रास्ता
होती है। एक चक्के से रथ नहीं चलता । जंगल में अंधा जानता था, पर पंगु होने के कारण चल नहीं सका । वह
और पंगु मिल गए तो परस्पर के सहयोग से नगर में आग में जल गया। अंधा व्यक्ति दौड़ता हआ अग्निकुंड में जा गिरा। वह बचाव का मार्ग देख नहीं पा रहा
प्रविष्ट हो गए।
ज्ञान प्रकाश देता है । तप शोधन करता है और . एगंमि रन्ने राजभएण णगराओ उव्वसिय लोगो संयम निरोध करता है। इन तीनों का सम्यक योग होने ठितो। पूणोवि धाडिभएण पवहणाणि उझिय पलाओ। पर हा माक्ष होता है। तत्थ दुवे अणाहप्पाया अंधो पंगू य उज्झिता। लोगग्गिणा मार्गज्ञ, नर्तकी और तैराक का दृष्टांत य वणदवो लग्गो । ते य भीता । अंधो छटकच्छो अग्गि
नाण सविसयनिययं न नाणमित्तेण कज्जनिप्फत्ती । तेण पलायति । पंगुणा भणितं-अंधा ! मा इतो नास ।
मग्गण्णू दिळेंतो होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥ णणु इतोप्पेव अग्गि । सो आह- कतो पूण गच्छामि ?
आउज्जनट्टकुसलावि नट्टिया तं जणं न तोसेइ । पंगू भणति- अहं मग्गदेसणासमत्थो पंगू । ता में खंधे
जोगं अजंजमाणी निदं खिसं च सा लहइ ॥ करेहि जेण अहिकंटकजलणादिअवाए पग्हिरावेतो सुहं
जाणतोऽवि य तरिउ काइयजोगं न जंजइ नईए । णगरं पावेमि । तेण तहत्ति पडिवज्जितं । अणुद्वितं
सो वुज्झइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो। पंगूवयणं । गता य खेमेण दोवि णगरं।।
(आवनि ११४३,११४४,११४६) (आवचू १ पृ ९६)
ज्ञान का अपना निश्चित विषय है। उसकी सीमा कुछ लोग राजभय से नगर छोड़ जंगल में जाकर
है। मात्र ज्ञान से कार्य निष्पन्न नहीं होता। दृष्टांत की रहने लगे । वहां एक बार डकैतों ने हमला किया। डकैतों
भाषा में कहा गया-मार्ग को जानने वाला यदि सचेष्ट के भय से वे अरण्यवासी अपने वाहनों को छोड़कर जान
है तो वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है और यदि सचेष्ट बचाने के लिए भागे। दो अनाथ व्यक्ति वहीं रह गए।
नहीं है तो एक चरण भी आगे नहीं बढ़ पाता। जंगल में लोगों द्वारा आग जलाई गई थी। हवा के योग से उसने दावानल का रूप ले लिया। वे दोनों भयभीत वाद्यकला और नृत्यकला में कुशल नर्तकी जब तक हुए। अंधा व्यक्ति जंगल को छोडकर अग्नि की ओर नृत्य नहीं करती, तब तक वह लोगों को संतुष्ट नहीं कर दौड़ा। पंगु ने कहा-ओ अंधे ! इधर मत जाओ। सकती। अपितु वह निंदा और अवहेलना को ही प्राप्त आगे अग्नि है। अंधे ने पूछा-तो फिर मैं किधर होती है ।
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