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दीपक का दृष्टां
तैरने की विद्या को जानता हुआ तैराक यदि तैरने के लिए नदी में अपने हाथ-पांव नहीं फैलाता है तो वह प्रवाह में बह जाता है, वैसे ही चरित्रहीन ज्ञानी पुरुष लक्ष्य को नहीं पा सकता ।
कर्म का दृष्टांत
आण्णाणी कुम्मी पुणो निमज्जेज्ज न उ मतं नाणी । सक्किरियापरिहीणो बुड्डइ नाणी जहन्नाणी ॥ नेच्छयनयमएण वा अन्नाणी चेव सो मुणंतो वि । नाणफलाभावाओ कुम्मो व निबुड्डइ भवोहे ॥ ( विभा १९५०, ११५१) जाता है, वैसे ही भवसागर में डूब
जैसे अज्ञानी कछुआ जल में डूब सत्क्रिया से परिहीन ज्ञानी मनुष्य भी है। ज्ञान का फल है-आचार - क्रिया । जो जानता हुआ भी क्रिया नहीं करता, वह अज्ञानी है—यह निश्चय न का अभिमत है ।
तह नाणदीवविमलं संजम संवरियमुहं
दीपक का दृष्टान्त असहाय मसोहिकरं नामिह पगासमेत्तभावाओ । सोइ घरकयारं जह सुपगासो विन पईवो ॥ न य सव्वविसोहिकरी किरिया वि जमपगासधम्मासा । जह न तमोगेहमलं नरकिरिया सव्वहा हरइ ॥ दीवाsपयासं पुण सक्किरियाए विसोहियकारं । संवरियsयारागमदारं सुद्धं घरं होइ ॥ तवकिरियासुद्ध कम्मयकयारं । हो सुविसुद्धं ॥ ( विभा ११७०-११७३) प्रकाशवान् प्रदीप घर की शुद्धि नहीं कर सकता, वैसे ही मात्र प्रकाश स्वभाव वाला अकेला ज्ञान आत्मशोधन नहीं कर सकता। घर में अंधेरा होने पर केवल परिमार्जन की क्रिया से शुद्धि नहीं हो सकती, वैसे ही अप्रकाशधर्मा क्रिया मात्र से आत्मशोधन सम्भव नहीं है ।
जीवघरं
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दीपक का प्रकाश हो, परिमार्जन की क्रिया हो और रजकण आने के द्वार बंद हों तो घर पूर्णतः शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार ज्ञानदीप प्रज्वलित हो, तप अनुष्ठान से संचित कर्ममल क्षीण हो और संयम से नये कर्मप्रवेश के द्वार संवृत हों तो आत्मगृह की पूर्ण शोधि होती है । ( तप और संयम चारित्र के ही दो रूप हैं ।)
वासुदेव
निच्छयमवलंबता निच्छयओ निच्छ्यं अणायंता । नासंति चरणकरणं बाहिरकरणालसा केइ || केचिदिदं चाङ्गीकुर्वन्ति यदुत परिशुद्धपरिणाम एव प्रधानो नतु बाह्यक्रिया, एतच्च नाङ्गीकर्त्तव्यं यतः परिणाम एव बाह्य क्रियारहितः शुद्धो न भवतीति, ततश्च निश्चय व्यवहारमतमुभयरूपमेवाङ्गीकर्त्तव्यमिति । (ओनि ७६१ वृप २२२) कुछ ऐसा मानते हैं कि 'मोक्षमार्ग में शुद्ध परिणाम ही प्रधान है, वैयावृत्त्य आदि बाह्य क्रियाएं आवश्यक नहीं हैं । यह कथन ठीक नहीं है । बाह्य क्रियारहित होने मात्र से परिणाम शुद्ध नहीं होते । निश्चयनय और व्यवहारनय – इन दोनों का अवलम्बन अपेक्षित है । केवल निश्चयनय का अवलम्बन लेकर बाह्यकरण में आलसी बने हुए मुनि अपने चारित्र को नष्ट कर देते हैं । वे वस्तुतः निश्चय को नहीं जानते । वायुकाय - वे जीव जिनका वायु ही है शरीर । जीवनिकाय का चौथा भेद । ( द्र. जीवनिकाय)
वासुदेव - अर्धभरत क्षेत्र (तीन खंड) के अधिपति, बलदेव के छोटे भाई ।
१. वासुदेव - बलदेव : एक परिचय २. वासुदेव का वर्ण, निदान आदि ३. वासुदेव का बल
४. त्रिपृष्ठ वासुदेव
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वासुदेव चक्रवर्ती कब ? वासुदेव का क्रम
वासुदेव बलदेव एक लब्धि
वासुदेव बलदेव : भव्य
१. वासुदेव बलदेव : एक परिचय
नाम
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(द्र. चक्रवर्ती)
( द्र. लब्धि)
(व्र लब्धि )
तिविट्ठू अदिविट्ठू सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससी हे । तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कहे ॥ अयले विजये भद्दे सुप्पभे अ सुदंसणे । आणंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे || ( आवभा ४०, ४१ )
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