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भाववर्गणा
वर्गणा
यह उस सचित्त महास्कन्ध के समान क्षेत्र, काल और अनुभाव वाला होता है।
चतुर्थे समय द्वावपि लोकक्षेत्र व्याप्नुतः, अष्टसामयिकं च कालं द्वावपि तिष्ठतः वर्णपञ्चक-गन्धद्वयरसपञ्चक-स्पर्शचतुष्टयलक्षणगुणयुक्तौ च द्वावपि भवतः ।
(विभामवृ पृ २८२) अचित्तमहास्कन्ध और सचित्तमहास्कन्ध-दोनों का क्षेत्र है--संपूर्ण लोकाकाश-चतुर्थ समय में ये पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। दोनों का स्थितिकाल हैआठ समय । दोनों में पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष) होते हैं।
सव्वक्कोसपएसो एसो केई, न चायमेगंतो। उक्कोसपएसो जमवगाहट्ठिइओ चउट्ठाणो।। अट्रप्फासो य जओ भणिओ, एसो य जं चउप्फासो। अण्णे वि तओ पोग्गलभेया संति त्ति सद्धेयं ।।
(विभा ६४५, ६४६) कुछ यह मानते हैं कि यह अचित्तमहास्कन्ध सर्वोत्कृष्ट संख्यक परमाणुओं से प्रचित है यह कथन एकांत सत्य नहीं है, क्योंकि पण्णवणा में उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों को अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित बताया गया है। वहां उत्कृष्टस्कन्ध को अष्टस्पर्शी और और यहां अचित्तमहास्कन्ध को चतुःस्पर्शी कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि पुद्गलास्तिकाय इतना ही नहीं है। पुद्गल के अन्य भेद भी हैं, जो यहां संगृहीत नहीं
८. क्षेत्रवर्गणा
एगपएसोगाढाण वग्गणेगा पएसवड्ढीए । संखेज्जोगाढाणं संखेज्जा वग्गणा तत्तो । तत्तो संखाईयाऽसंखाईयप्पएसमाणाणं । गंतुमसंखेज्जाओ जोग्गाओ कम्मुणो भणिया । . तत्तो संखाईया तस्सेव पुणो हवंतऽजोग्गाओ। माणसदव्वाईण वि एवं तिविगप्पमेक्कक्कं ॥
(विभा ६४७-६४९) ० एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गलस्कन्धों की एक वर्गणा
होती है। दो प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलस्कन्धों की एक वर्गणा है। इस प्रकार क्रमश: एक-एक प्रदेश की वृद्धि होने से संख्येय प्रदेशों में अवगाढ पूदगलस्कन्धों की संख्येय वर्गणाएं होती हैं। . असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ पुदगलस्कन्धों की
असंख्येय वर्गणाएं होती हैं। असंख्येय प्रदेशों में
अवगाढ वर्गणाएं ही कर्म के योग्य होती हैं । ० कर्मवर्गणा के अवगाढ क्षेत्र में एक-एक आकाश-प्रदेश
की वृद्धि होने पर उनमें अवगाढ वर्गणाएं कर्म के अग्रहण योग्य हो जाती हैं । मन के अग्रहण योग्य वर्गणाएं भी असंख्य हैं। इसी प्रकार आनापान, भाषा, तेजस, आहारक, वैक्रिय और औदारिक के अयोग्य, योग्य और अयोग्य वर्गणाओं के क्षेत्र की
अपेक्षा से तीन-तीन विकल्प बनते हैं। ६. कालवर्गणा
नेगम ववहाराणं आण पुग्विदम्बाई लोगस्स कतिभागे एगा समयठिईणं संखेज्जा संखसमयठिइयाणं । होज्जा ?......"एकदव्वं पडुच्च लोगस्स..."असंखेज्जेसु होति असंखेज्जाओ तत्तो असंखेज्जसमयाणं ।। भागेसु वा होज्जा, देसूणे लोए वा होज्जा। (अनु १६८)
(विभा ६५०) महखंधापुन्नेवी अव्वत्तब्बगअणणुपुग्विदम्बाई ।
एक समय की स्थिति वाले परमाणु स्कन्धों की एक देसोगाढाई तहे सेणं स लोगूणो ॥ वर्गणा होती है। एक-एक समय की वद्धि होने से संख्यात
(अनुचू पृ ३२)
समय की स्थिति वाले पुद्गलों की संख्येय और असंनैगम-व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य देशोन।
ख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों की असंख्येय (कुछ न्यून) लोक में व्याप्त होते हैं ।
वर्गणाएं होती हैं। अचित्तमहास्कन्ध की अपेक्षा एक आनुपूर्वी द्रव्य पूरे १०. भाववर्गणा लोक में व्याप्त होता है। यहां देशोन लोक कहने का तात्पर्य है कि लोक के देश-एक प्रदेश और द्विप्रदेश में एगा एगगुणाणं एगुत्तरवृढिया तओ कमसो। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य रहते हैं। देश-लोक में संखेज्जगुणाण तओ संखेज्जा वग्गणा होति । उनकी प्रधानता की विवक्षा से आनपूर्वी द्रव्य को देशोन संखाईयगुणाणं संखाईया य वग्गणा तत्तो। लोक में अवगाढ कहा गया है।
होंति अणंतगूणाणं दवाणं वग्गणाऽणंता ।।
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