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वर्गणा
ध्रुव-अध्रुव आदि वर्गणाएं
निच्च होंति धुवाओ इयरा लोए न होंति वि कयाइ । एको वुड्ढी कयाइ सुतराओ वि ॥ जाओ हवंति ताओ सुण्णंतरवग्गण त्ति भण्णंति । निययं निरंतराओ होंति असुण्णंतरा उत्ति ।। ध्रुवणंतराई चत्तारि जं धुवाई अणंतराई च । भयपरिमाणओ जा सरीरजोग्गत्तणाभिमुहा ॥ खंधदुगदेहजोग्गत्तणेण वा देहवग्गणाउ ति । दरगयबायर परिणामो मीसक्खंधो || ( विभा ६३९-६४२)
ध्रुव वर्गणाएं सदा नियत होती हैं । अध्रुव वर्गणाएं कभी होती हैं, कभी नहीं भी होतीं। एक-एक परमाणु
वृद्धि होने पर शून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं । ये निरंतर अनन्त रहती हैं, पर कभी - कभी परमाणुओं की वृद्धि में व्यवधान आ जाता है। इनमें एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर अशून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं। ये लोक में निरंतर रहती हैं । इनके परमाणुओं की वृद्धि के क्रम में कभी व्यवधान नहीं आता है ।
अशून्यान्तर वर्गण के पश्चात् चार ध्रुवानन्तर वर्गणाएं हैं । ये ध्रुव (सर्वकालभाविनी) हैं, अनन्त हैं और इनमें निरन्तर एक-एक परमाणु की वृद्धि होती रहती है । इनका परिणमन अत्यन्त सूक्ष्म होता है और ये प्रचुर द्रव्यों से उपचित हैं, अतः ध्रुववर्गणाओं से भिन्न
।
चार ध्रुवानन्तर वर्गणाओं के पश्चात् एक-एक परमाणु की वृद्धि से युक्त अनन्त वर्गणात्मक चार तनुवर्गणाएं है । भेद और संघात के परिणमन के द्वारा ये औदारिक आदि चार शरीरों की योग्यता के अभिमुख होती हैं । अथवा जो मिश्र स्कन्ध और अचित्त स्कन्ध के देह- उपचय की योग्यता के अभिमुख वर्गणाएं हैं, वे तनुवर्गणाएं हैं । मिश्रस्कन्ध वर्गणा
जो सूक्ष्म परिणमन वाली है, किंचित् स्थूल परिणमन के अभिमुख है और अनन्त अनन्त परमाणुओं से उपचित है, वह मिश्रस्कन्ध वर्गणा है । ७. अचित्त महास्कन्धवर्गणा
केवलिउग्घातो इव समयट्ठकपूरए य तियलोगं । अचियत्तमहाखंधो वेला इव अतर नियतो य ॥
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अचित्त महास्कन्धवर्गणा
अत्तिमहाबंध सो लोगमेत्तो वीससापरिणामतो भवति । तिरियमसंखेज्जजोयणप्यमाणो संखेज्जजोयणमाणे वा अणियतकालोथाई वट्टो । उड्ढअधोचोहसर - ज्जुप्पमाणे सुमपोग्गलपरिणामपरिणतो पढमसमए दंडो भवति, बितिए कवाडं ततिए मत्थंकरणे चउत्थे लोगपूरणं । पंचमादि समसु पडिलोमसंथारे अट्ठमए सव्वहा तस्स खंधत्तविणासो । एस जलनिहिवेला इव लोगापूरणसंहारकरणठितो लोग पुग्गलाणुभावो सव्वष्णूवयणतो सद्धेतो । ( अनुचू पृ ३३, ३४) अचित्तमहास्कन्ध केवलिसमुद्घात की तरह आठ समय में तीनों लोकों को आपूरित करता है। यह समुद्रवेला की तरह दुस्तर, विशाल एवं नियत है ।
वह अचित्तमास्कन्ध लोकप्रमाण और स्वाभाविक परिणमन से होता है । तिरछे लोक में यह असंख्येय होता है। इसके होने का काल नियत नहीं है । ऊर्ध्व लोक योजन प्रमाण अथवा संख्येय योजन प्रमाण में वृत्ताकार और अधोलोक में यह चौदह रज्जु प्रमाण सूक्ष्म पुद्गल परिणाम में परिणत हो प्रथम समय में दण्डाकार होता है । दूसरे समय में कपाट और तीसरे समय में मंथान के आकार में होता है । चौथे समय में पूरे लोक में व्याप्त हो जाता है। अंतिम चार समयों में प्रतिलोम-क्रम से पांचवें समय में मंथान, छठे समय में कपाट, सातवें समय में दण्ड तथा आठवें समय में सर्वथा उस स्कन्ध का विनाश हो जाता है । वह समुद्र -ज्वार की तरह लोक को आपूरित करता है और फिर संकुचित हो जाता है । यह लोकवर्ती पुद्गलों का अनुभाव -सामर्थ्य है । यह सर्वज्ञ वचन से श्रद्धेय है ।
जइणसमुग्धायगईए चउहि समयेहिं पूरणं कुणइ । लोगस्स तेहि चेव य संहरणं तस्स पडिलोमं । जइणसमुग्धायस चित्तकम्मपोग्गलमयं महाखंधं । पर तस्समाणुभावो होइ अचित्तो महाखंधो ॥ (विभा ६४३, ६४४) अचित्तमहास्कन्ध अपनी स्वाभाविक परिणति से केवली समुद्घात की तरह चार समयों में लोक को आपूरित करता है । चार समयों में प्रतिलोम क्रम से उसका संहरण होता है ।
केवलिसमुद्घात के समय कर्मपुद्गलमय महास्कंध जीव से अधिष्ठित होने के कारण सचित्त होता है । पुद्गलमय महास्कंध अचित्तमहास्कंध कहलाता है ।
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