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वन्दना
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वन्दना के दोष
वइदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए ३. यथाजात (अंजलिपुट को शिर से सटाकर कृतिकर्म लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्मा- करना) इक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स ४-१५. बारह आवर्त (सूत्रोच्चारणपूर्वक कायिक खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं
प्रवृत्ति)। वोसिरामि।
(आव ३३१) १६-१९. चतुःशिर (शिर से चार बार अवनमन)। क्षमाश्रमण ! मैं संयत निषद्या से संयमपूर्वक बैठकर २०-२२. त्रिगुप्त (मनोगप्त, वचनगुप्त तथा कायगुप्त) । आपको वन्दना करना चाहता हूं।
२३,२४. द्विप्रवेश (अवग्रह में दो बार अनुज्ञापूर्वक आप मुझे अपने परिमित अवग्रह में आने की अनुज्ञा
प्रवेश। दें। (अनुज्ञा प्राप्त करने के बाद) बैठकर मैं आपके चरण २५. एक निष्क्रमण (अवग्रह में प्रथम प्रवेश के का शिर से स्पर्श करता है। इस स्पर्श में आपको कोई
बाद किये जाने वाला निष्क्रमण)। कष्ट हुआ हो तो आप मुझे क्षमा करें।
कृतिकर्म : कब ? कितने ? ____ आप कष्टानुभूति से रहित हैं । आपका यह दिन
चत्तारि पडिक्कमणे किइकम्मा तिन्नि हुंति सज्झाए । निर्विघ्नरूप में कल्याणकारी प्रवृत्ति में बीता?
पुव्वण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति ।। आपकी यात्रा-तप, नियम, स्वाध्याय, ध्यान की।
गुरुं पुन्वसंझाए वंदित्ता आलोएइत्ति एवं एक्क, प्रवृत्ति-प्रशस्त रही ?
अब्भुठ्ठियावसाणे जं पुणो वंदति गुरुं एयं बिइयं," . आपका यमनीय-इन्द्रिय और मानसिक संयम आयरियस्स अल्लिविज्जइ तं तइयं, पच्चक्खाणे चउत्थं । प्रशस्त रहा ? क्षमाश्रमण ! आपके प्रति होने वाले सज्झाए पूण बंदित्ता पठ्ठवेइ पढम, पविए पवेदयंतस्स दिवस-सम्बन्धी व्यतिक्रम के लिए आप मुझे क्षमा बितियं..कालवेलाए वंदिउं पडिक्कमइ, एयं तइयं । करें।
(आवनि १२०१ हावृ २ पृ ३५) आपके प्रति अवश्य करणीय कार्य में मेरे द्वारा कोई पूर्वाह्न में सात और अपराह्न में सात-इस प्रकार प्रमाद हुआ हो तो मैं उसका प्रतिक्रमण करता हूं। एक दिन में चौदह कृतिकर्म किए जाते हैं। ___आपकी तेतीस में से कोई एक भी आशातना की हो,
प्रतिक्रमण के समय चार कृतिकर्मआपके प्रति यत् किंचित् मिथ्याभाव आया हो या मिथ्या
१. आलोचना के समय । व्यवहार किया हो, मन में कोई बुरा विचार आया हो,
२. क्षामणा के समय । वचन का दुष्प्रयोग किया हो, काया की दुष्प्रवृत्ति की।
३. आचार्य आदि के आश्रयण-निवेदन के समय । हो, क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेश में कोई
४. प्रत्याख्यान के समय ।
__स्वाध्याय के समय तीन कृतिकर्मअवांछनीय व्यवहार किया हो, सर्वकाल में होने वाली
१. स्वाध्याय प्रस्थापन के समय । सर्व मिथ्या उपचारों से युक्त, सब धर्मों का अतिक्रमण करने वाली कोई भी आशातना की हो, उसके विषय में
२. स्वाध्याय प्रवेदन के समय ।
३. स्वाध्याय के पश्चात् । जो मैंने अतिचार किया हो, हे क्षमाश्रमण ! मैं उसका
(कृतिकर्म का विस्तृत वर्णन देखें-समवाओ १२१३ प्रतिक्रमण करता हूं, निंदा करता हूं, गर्दा करता हूं,
का टिप्पण) आशातना में प्रवृत्त अपने आपका व्युत्सर्ग करता हूं।
८. वन्दना के दोष ७. कृतिकर्म के प्रकार
अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिडियं । दोओणयं अहाजायं किइकम्मं बारसावयं ।
टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ।। चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ।।
मच्छव्वत्तं मणसा पउ8, तह य वेइयावद्धं ।
(आवनि १२०२) भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥ कृतिकर्म के पचीस प्रकार हैं
तेणियं पडिणियं चेव, रुठं तज्जियमेव य । १,२. अवनमन
सद च हीलियं चेव, तहा विपलिउंचियं ।
प
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