________________
वन्दना सूत्र
५७१
वन्दना
जइ लिंगमप्पमाणं न नज्जई निच्छएण को भावो ? | असंयत वन्दनीय नहीं होते, फिर चाहे माता-पिता, दळूण समलिंगं कि कायव्वं तु समणेणं ?॥ गुरु, सेनापति, प्रशास्ता, राजा और देव भी क्यों न अप्पुव्वं दळूणं अब्भुट्ठाणं तु होइ कायव्वं । हो । साहम्मि दिठ्ठपुवे जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥ दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालपासत्था ।
(आवनि ११२२-११२५) एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ।। छद्मस्थ मुनि सुविहित और दुविहित मुनि को नहीं ।
(आवनि ११९१) जान सकता । इसलिए मन, वाणी और काय की दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में सदा प्रमाद पवित्रता से लिंग की ही पूजा करनी चाहिए। शिष्य के करने वाले पार्श्वस्थ अवंदनीय हैं । वे प्रवचन की यशोइस कथन पर गुरु ने कहा---यदि लिंग ही प्रमाण है तब गाथा का हनन करने वाले हैं। तो सारे निह्नव भी वंदनीय हो जाएंगे। यदि वे अवंदनीय पार्श्वस्थ के पांच प्रकार हैं, तब लिंग भी अप्रमाण है।
पासत्थो ओसन्नो होई कुसीलो तहेव संसत्तो । लिंग अप्रमाण है, भावों को निश्चयपूर्वक जाना नहीं
अहछंदोऽविय एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ।। जा सकता, तब श्रमण के लिंग को देखकर क्या करना
(आवहावृ २ पृ १८) चाहिए?
१. पार्श्वस्थ-अतिचार-अनाचार का सेवन करने इसके समाधान में गुरु ने कहा-पहले जिस मुनि
वाला, राजपिण्ड, अग्रपिण्ड, शय्यातर का भोजन को नहीं देखा, उसके आगमन पर अभ्युत्थान अवश्य
आदि लेने वाला। करना चाहिए। उद्यतविहारी को वंदना करनी चाहिए,
२. अवसन्न-सामाचारी में शिथिल, आलसी । शिथिलाचारी को वंदना नहीं करनी चाहिए ।
३. कुशील-विद्या, मंत्र, निमित्त आदि बताने वाला। आलएणं विहारेणं ठाणचंकमणेण य ।
४. संसक्त-मूलोत्तर गुणों एवं दोषों-दोनों में संसक्त । सक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य॥
५. यथाच्छन्दक-उत्सूत्र की प्ररूपणा करने वाला, पायं आलयादीहिं लक्खिज्जति सुविहितऽसुविहिता। आगमनिरपेक्ष आचरण करने वाला। जदिवि य कत्थइ न लक्खिज्जति तहवि आगमोवयोगतो ये पांचों प्रकार के साधु जिनमत में अवन्दनीय हैं। पयत्तो सुद्धो चेव । तम्हा आगमोवउत्तेहिं पयत्तेहिं किइकम्मं च पसंसा सूहसीलजणम्मि कम्मबंधाय । सव्वमणुट्टाणमणुसीलणीयं ति एस कप्पो अम्हं ति ।
जे जे पमायठाणा ते ते उववाहिया हंति ॥ (आवनि ११४८ चू २ पृ ३०,३१)
(आवनि ११९२) एकांत स्थान में प्रवास, मासकल्प आदि विहार,
पार्श्वस्थ सुखशील होते हैं, उनको कृतिकर्मयथाविधि कायोत्सर्ग, ईर्यासमितिपूर्वक गमन, भाषाविवेक, वन्दना करना तथा उनकी प्रशंसा करना कर्मबंध का आचार्य आदि का विनय-इन लक्षणों से सुविहित साधु
कारण है और उससे प्रमादस्थानों का उ होता है। की पहचान हो जाती है।
पार्श्वस्थ और कुशील अनायतन हैं। (द्र. आयतन) यदि स्थान, वेश आदि से शुद्ध साधु की पहचान न
६. वन्दना सूत्र हो, तब आगम के निर्देश के अनुसार वंदना आदि प्रवृत्ति करना शुद्ध है। प्रत्येक अनुष्ठान आगमोपयुक्त होकर
___ इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए निसीकरना चाहिए, यह हमारा आचार है।
हियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहोकायं लिंग भी मुनि की पहचान का हेतु है। (द्र. लिंग)
कायसंफासं खमणिज्जो भे किलामो । अप्पकिलंताणं
बहसुभेण भे दिवसो वइक्कतो? जत्ता भे? जवणिज्ज ५. अवंदनीय कौन ? असंजयं न वंदिज्जा, मायरं पियरं गुरुं ।
खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कम । आवस्सिसेणावई पसत्थारं, रायाणं देवयाणि य ।। याए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए
(आवनि ११०५) तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org