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वन्दना
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वन्दनीय की पहचान
द्रव्यवन्दन -मिथ्यादृष्टि और अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि का शीतल ने सोचा- इन्होंने मेरे मन की बात कैसे जान वन्दन ।
ली? पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे चारों केवली हो गए भाववन्दन- उपयुक्त सम्यग्दृष्टि का वन्दन ।
हैं। आचार्य को मन ही मन अत्यंत पश्चात्ताप हुआ कि द्रव्यचितिकर्म-तापस आदि की लिङ्गग्रहण की क्रिया, मैंने केवलियों की आशातना की है। भावना का प्रकर्ष
अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की रजोहरण उपधि आदि। हुआ, आचार्य चारों केवलियों को वंदना करने लगे। ग्रहण की क्रिया।
भाववन्दना के उत्कर्ष से ज्योंही उन्होंने चौथे केवली को भावचितिकर्म-उपयुक्त सम्यग्दष्टि की रजोहरण आदि वन्दना की, वे स्वयं केवली बन गए। ग्रहण की क्रिया।
____एक कायिकी चेष्टा-द्रव्य वंदना बन्धन के लिए द्रव्यकृतिकर्म-निह्नव और अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की होती है और एक कायिकी चेष्टा-भाव वंदना मोक्ष के अवनाम. आवर्त आदि क्रियाएं ।
लिए होती है। भावकृतिकर्म --उपयुक्त सम्यग्दष्टि की अवनाम, आवर्त (क्षुल्लक आदि शेष दृष्टांतों के लिए देखें-आवहावृ आदि क्रियाएं ।
२ पृ १५-१७) दृष्टांत
३. वंदनीय की अर्हता सीयले खुडडए कण्हे सेवए पालए तहा ।
दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालमुज्जुत्ता। पंचेते दिळंता किइकम्मे होंति णायव्वा ।।
एए उ वंदणिज्जा जे जसकारी पवयणस्स ।। (आवनि ११०४)
आयरिय उवज्झाए पव्वत्ति थेरे तहेव रायणिए । द्रव्य-भाव वन्दना के प्रसंग में पांच दृष्टात हैं- एएसि किइकम्म कायव्वं निज्जरढाए॥ शीतल, क्षुल्लक, कृष्ण, सेवक और पालक ।
पंचमहव्वयजुत्तो अणलस माणपरिवज्जियमईओ । शीतल आचार्य
संविग्गनिज्जरट्री किइकम्मकरो हवइ साह ।। राजपुत्र शीतल प्रवजित हुआ, आगमों का अध्ययन
(आवनि ११९३,११९५,११९७) कर आचार्य बन गया। उसकी बहिन के चारों पुत्र अपने
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय की आराधना मातूल की प्रव्रज्या से प्रेरित होकर, स्वयं प्रवजित हो में सतत संलग्न, प्रवचनप्रभावक मुनि बन्दनीय हैं। गए। वे बहुश्रुत होकर अपने मातुल आचार्य के दर्शनार्थ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा रात्निक प्रस्थित हए । छानबीन करने पर पता चला कि आचार्य मुनि वन्दनीय हैं । अमुक गांव में हैं। जैसे ही वे उस गांव के परिसर में जो मुनि पांच महाव्रतों से युक्त, जागरूक, निरभिपहुंचे, सूर्यास्त हो गया । वे गांव की बहिरिका में ही मान, वैराग्यसम्पन्न और निर्जरार्थी होते हैं, वे कृतिकर्म ठहर गए । संदेशवाहक ने आचार्य शीतल से चारों मूनि के योग्य हैं। भानजों के आगमन की बात कही। वे अत्यंत प्रसन्न समणं वंदिज्ज मेहावी, संजयं सुसमाहियं । हए । चारों मुनि रात्री में धर्मजागरिका कर रहे थे। पंचसमिय तिगुत्तं, अस्संजमदुगुंछगं ।। परिणामों की विशुद्धि बढ़ी और वे चारों ही केवली हो
(आवनि ११०६) गए।
पांच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त तथा प्रातःकाल हआ। आचार्य प्रतीक्षा में बैठे थे। चारों असंयम से जुगुप्सा करने वाले संयत सुसमाहित श्रमण नहीं पहुंचे, तब आचार्य स्वयं वहां गए । चारों केवली वन्दनीय हैं। मुनियों ने आचार्य को देखा,पर उठे नहीं। आचार्य असमंजस में पड़ गए, पूछा- 'मैं किसको वन्दना करूं?' ४. वन्दनीय की पहचान उन्होंने कहा-जैसी इच्छा। आचार्य ने सोचा-ये शिष्य सुविहिय दुविहियं वा नाहं जाणामि हं ख छउमत्थो । मुनि कितने अविनीत हो गए हैं ? फिर भी आचार्य ने लिंगं तु पूययामी तिगरणसुद्धेण भावेणं ।। उन्हें वन्दना की । केवली मुनि बोले-"आर्य ! द्रव्य- जइ ते लिंग पमाणं वंदाही निण्हवे तुमे सव्वे । वन्दना से क्या प्रयोजन ? भाववंदना करें।" आचार्य एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते॥
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