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द्रव्य-भाव वन्दना
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वन्दना
समयोपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्रम-अर्द्धतृतीयद्वीप- वन्दना-अभिवादन समुद्राः ।
(उशावृ प ६७३)
१. वन्दना के पर्याय __ जहां समय, आवलिका आदि कालविभाग विद्यमान |
२. द्रव्य-भाव वन्दना है, वह समयक्षेत्र कहलाता है ।
• दृष्टान्त जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड एवं अर्धपुष्कर-इन ढाई
३. वन्दनीय की अर्हता द्वीपों की संज्ञा समयक्षेत्र है। इसके चारों ओर नगर के
४. वन्दनीय की पहचान परकोटे की तरह मानूषोत्तर पर्वत की परिधि है।
५. अवन्दनीय कौन ? ११. असंख्य द्वीप-समुद्र
६. वन्दना सूत्र
७कृतिकर्म के प्रकार जंबुद्दीवे लवणे, धायइ-कालोय-पुक्खरे वरुणे ।
८. वन्दना के दोष , खीर-घय-खोय-नंदी अरुणवरे कुंडले रुयगे ।।
९. वन्दना का विवेक जंबुद्दीवाओ खलु निरंतरा सेसया असंखइमा ।
१०. वन्दना के विशेष प्रसंग भुयगवर-कुसवरा वि य, कोंचवराभरणमाईया ।।
| ११. बन्दना का प्रयोजन और परिणाम आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए य पूढवि-निहि-रयणे।
* वन्दना : आवश्यक का एक प्रकार वासहर-दह-नईओ विजया वक्खार-कप्पिदा ॥
(द्र. आवश्यक) कुरु-मंदर-आवासा, कूडा नक्खत्त-चंद-सूरा य । । * वन्दना और स्तुति एकार्थक (द्र. स्तव-स्तुति) | देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभुरमणे य॥
(अनु १८५) १. वन्दना के पर्याय जंबूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, वंदणचिइकिइकम्म पूयाकम्म य विणयकम्मं च ।" पुष्करद्वीप, वरुणसमुद्र, क्षीर, घृत, इक्षु, नन्दी, अरुणवर,
(आवनि ११०३) कुण्डलवर, रुचकबर-ये सारे द्वीप और समुद्र परस्पर वन्दना के पांच पर्याय - संलग्न हैं तथा रुचकवर से असंख्य द्वीप और समुद्रों के बाद भुजगवर द्वीप है। इसी प्रकार कुसवर, चितिकर्म-कशल कर्म का चय । रजोहरण आदि उपधि क्रौञ्चवर, आभरण आदि द्वीपों के बीच असंख्य का ग्रहण । द्वीप और समुद्रों का व्यवधान है। आभरण, वस्त्र, गंध, कृतिकर्म--अवनाम, आवर्त आदि क्रियाएं । उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधि, रत्न, वर्षधर, द्रह, नदी, पूजाकर्म-प्रशस्त मन, वचन और काय की चेष्टा । विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र, कुरु, मन्दर, आवास, कट, विनयकर्म-कर्म का अपनयन । गुरु आदि का विनय । नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, नाग, यक्ष, भूत और स्वयंभू- २. द्रव्य-भाव वन्दना रमण --ये सारे द्वीप और समुद्र हैं।
वन्दनकर्म द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतो मिथ्या(आभरण, वस्त्र आदि पदार्थों के जितने शुभ नाम दष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृष्टेश्च, भावत: सम्यग्दृष्टेरुपयुक्तस्य, हैं, जितने शुभ रूप, रस आदि हैं, उनके सदृश उतने ही चितिकर्मापि द्विधव -द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तापसादिनाम असंख्य द्वीप-समुद्रों के हैं। देखें-अनुमवृ पत्र ८२) लिङ्गग्रहणकर्मानुपयुक्तसम्यग्दृष्टे रजोहरणादिकर्म च, लोकभावना-पुरुषाकार लोक की विविधता का ।
भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्ता रजोहरणाद्युपधिक्रियेति, कृति
कर्मापि द्विधा-द्रव्यतः निह्नवादीनामवनामादिकरणअनुचिन्तन करना, उसमें एकाग्र ।
मनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च । भावतः सम्यग्दृट्युपयुक्तानाहोना। (द्र. अनुप्रेक्षा)
मिति ।
(आवहावृ २ पृ १५) वनस्पतिकाय-छह जीव-निकाय का पांचवां भेद। द्रव्य और भाव के भेद से वन्दना आदि के दो-दो
(द्र. जीवनिकाय) प्रकार---
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