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महाव्रत
माहम
जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही मूर्छा परिग्रह प्रभाव है-ऐसा मैं मानता हैं। जो श्रमण सन्निधि का
न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । कामी है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा ।। सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे ।
(द ६।२०) अवि अप्पणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ॥ सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि
(द ६।२१) को परिग्रह नहीं कहा है । मूर्छा परिग्रह है - ऐसा महर्षि सब काल और सब क्षेत्रों में तीर्थकर उपधि (एक (गणधर) ने कहा है। दूष्य वस्त्र) के साथ प्रवजित होते हैं। प्रत्येकबुद्ध, जिन- ...."गंथोऽगंथो व मओ मुच्छममुच्छाहिं निच्छयओ। कल्पिक आदि भी संयम की रक्षा के निमित्त उपधि ग्रहण
. (विभा २५७३) करते हैं। वे उपधि पर तो क्या, अपने शरीर पर भी
निश्चय नय के अनुसार मूर्छा परिग्रह है और ममत्व नहीं करते।
अमूर्छा अपरिग्रह है।
१७. परिग्रह को निकृष्टता १५. अपरिग्रह महाव्रत की भावना
आयाणं नरयं दिस्स, नायएज्ज तणामवि । पंचमे महव्वते य परिग्गहाओ वेरमणं, तस्स इमाओ
(उ ६७) पंच भावणाओ भवंति ...''"सोइंदिएण मणण्णामणण्णाई
'परिग्रह नरक है' यह देखकर एक तिनके को भी सहाई सूणेत्ता भवति.."चक्खिदिएण मणुण्णामणुण्णाई अपना बनाकर न रखे । रूवाइं पासित्ता भवति...."घाणिदिएणं अग्घाइत्ता......"
१८. परिग्रह-त्याग को निष्पत्ति जिभिदिएणं आसाएत्ता...."फासिदिएणं पडिसंवेदेत्ता।
(आवच २ पृ १४६) गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं। अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं
सव्वमेयं चइत्ताणं, कामरूवी भविस्ससि ।।
(उ६५) मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श
गाय, घोड़ा, मणि, कुंडल, पशु, दास और कर्मकरों इन पांचों के प्रति प्रियता-अप्रियता का भाव न लाना ।
का समूह-इन सबको छोड़ ऐसा करने पर तु कामरूपी १६. परिग्रह के द्रव्य क्षेत्र
(इच्छानुकूल रूप बनाने में समर्थ) होगा। परिग्गहो नाम साधुमेरातिक्कमेण गहो।
माहन-अहिंसक, श्रमण । ब्राह्मण । __(आवच २ पृ ९३)
___ 'माहणे' त्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक् क्रिया च साधु-मर्यादा का अतिक्रमण कर वस्तु का ग्रहण यस्यासौ माहनः । करना परिग्रह है।
(उशाव प ४४२) परिग्गहे चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा–दव्वतो, खेत्ततो,
जो कहता है-मा हन-मत मारो और जिसकी कालतो, भावतो। दब्बतो सव्वदव्वेहि, खेत्ततो सव्वलोए, मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति अहिंसात्मक होती हैं, कालतो दिया वा रायो वा, भावतो अप्पग्धे वा महग्घे वा।
(दअचू १८५) जो लोए बंभणो वुत्तो, अग्गी वा महिओ जहा। परिग्रह के चार प्रकार
सया कुसलसंदिठें, तं वयं बूम माहणं ।। द्रव्यत:-सब द्रव्य।
जो न सज्जइ आगंतुं, पव्वयंतो न सोयई। क्षेत्रत:--सब क्षेत्र।
रमए अज्जवयणमि, तं वयं बूम माहणं ।। कालतः --दिन-रात ।
जायरूवं जहामट्ठं, नितमलपावगं । भावतः- अल्पमूल्य और बहुमूल्य ।
रागहोसभयाईयं, तं वयं बम माहणं ।।
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