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माहन
माहणं ॥
तसपाणे वियाणेत्ता, संगण य थावरे | जोन हिंसइ तिविणं, तं वयं बूम माहणं ॥ कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गेण्ड्इ अदत्तं जो, तं वयं बूम दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ एवं अलितो कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ अलोलुपं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं हित्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥ ( उ २५।१९-२७)
मेहुणं ।
माहणं ॥
वारिणा ।
माहन वह है,
जो अग्नि की भांति सदा लोक में पूजित है । ● जो संयोग होने पर आसक्त नहीं होता, वियोग के समय शोक नहीं करता, जो आर्यवचन में रमण करता है ।
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जो अग्नि में तपाकर शुद्ध किए हुए और घिसे हुए सोने की तरह विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है ।
• जो त्रस और स्थावर जीवों को भली-भांति जानकर मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं
करता ।
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"कम्मुणा बंभणो होइ
( उ २५।२९-३१) ओम् का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता । ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है ।
• मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है ।
नैव ॐकारोपलक्षणत्वाद् ॐ भूर्भुवः स्व' रित्याद्युच्चारणरूपेण ब्राह्मणः । ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचर्यम् |'''' द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्मपरं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥
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माहन की उत्पत्ति
( उशावृ प ५२८ ) 'ॐ भूर्भुवः स्वः' इत्यादि उच्चारण से कोई ब्राह्मण नहीं होता । जो ब्रह्म की चर्या में लीन रहता है, वह ब्राह्मण है । जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह ब्राह्मण है ।
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जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं ताहे अभिगयाणि सड्ढाणि भवंति बोलता ।
• जो सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ थोड़ा या अधिक कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता |
● जो देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करता ।
• जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो कामभोगों से लिप्त नहीं होता ।
लोलुप नहीं है, निष्कामजीवी, गृह-त्यागी और अकिंचन है तथा गृहस्थों में अनासक्त है । .......न ओंकारेण बंभणो
'बंभचेरेण बंभणो....
ब्रह्म के दो प्रकार हैं शब्दब्रह्म और परब्रह्म । शब्दब्रह्म में निष्णात व्यक्ति परब्रह्म को प्राप्त करता है । माहन की उत्पत्ति
भरहो सावए सहावेत्ता भणतिमा कम्मं पेसणादि वा करेह, अहं तुब्भं वित्ति कप्पेमि, तुम्भेहि पढ़ते ह सुतेहि साधुसुस्सूसणं कुणंतेहि अच्छियव्वं, ताहे ते दिवसदेवसियं भुंजंति । य भांति - जहा तुब्भं जिता अहो भवान् वर्द्धते भयं मा हणाहित्ति एवं ते उप्पन्ना माहणा णाम, जे तेसि पुत्ता उप्पज्जंति ते साहूणं उवणिज्जंति, जति णित्थरंति तो लट्ठ अह न नित्थरंति आरिया वेदा कता भरहादीहि तेसि सज्झातो होउत्ति, तेसु वेदेसु तित्थगरथुतीओ जतिसावगधम्मो संतिकम्मादि यन्निज्जति । ( आवचू १ पृ २१३ - २१५ ) ऋषभपुत्र चक्रवर्ती भरत ने श्रावकों को आमन्त्रित कर निर्देश दिया- तुम कृषि, व्यापार आदि कोई कर्म मत करो, मैं तुम्हें आजीविका दूंगा। आज से पठनश्रवण और संतों की उपासना- ये ही तुम्हारे कार्य होंगे। तुम मुझे प्रतिदिन इस भाषा में सावधान करते रहो - अहो ! कषाय और प्रमाद का भय बढ़ रहा है, आप उनसे पराजित हो रहे हैं, अतः 'मा हन, मा हन', किसी को उत्पीड़ित मत करो। इस प्रकार 'माहन' शब्द की उत्पत्ति हुई । उन ब्राह्मणों के पुत्र यदि समर्थ होते तो साधु बन जाते अन्यथा व्रतधारी तत्त्वज्ञ श्रावक बन जाते ।
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