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________________ महाव्रत अपरिग्रह महाव्रत पाना । तत्तो वि से चइत्ताण, लम्भिही एलमूययं । समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं नरयं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्य सुदुल्लहा ।। वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न (द ५।२।४६-४८) समणुजाणामि । (द ४।सूत्र १५) भावचौर्य के पांच प्रकार हैं भंते ! पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती १. तप-चोर -तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को तपस्वी बताना। भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान २. वाणी-चोर -धर्मकथी या वादी न होते हुए भी करता हूं। गांव में, नगर में या अरण्य में-कहीं भी, अल्प स्वयं को वैसा बताना । या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त-कभी भी ३. रूप-चोर-उच्चजातीय न होते हुए भी स्वयं को वैसा बताना। परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से परिग्रह ४. आचार-चोर-आचार-संपन्न न होते हए भी स्वयं का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह ग्रहण करने वालों को आचारवान् बताना । का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, ५. भाव-चोर-सूत्र और अर्थ को न जानते हुए भी तीन करण तीन योग से-मन से, वचन से, काया सेअभिमानवश जानने का भाव प्रदर्शित बत न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करना। भी नहीं करूंगा। यह भावचौर्य किल्बिषिक देव योग्य कर्म का हेतु है। तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। किल्बिषिक देव के रूप में उत्पन्न जीव देवत्व को पाकर होही अट्टो सुए परे वा, भी वहां वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किस कार्य का तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ फल है।' वहां से च्युत होकर वह मनुष्य गति में आ (द १०८) एडमूकता (गूगापन) अथवा नरक या तिर्यंचयोनि को विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को विधि से पाएगा, जहां बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है। प्राप्त कर-यह कल या परसों काम आएगा-इस १३. अदत्तादान के प्रकार प्रकार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता अदिण्णादाणे चतूविहे पण्णत्ते, तं जहा-दब्वतो है, वह भिक्षु है। अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थुलं वा चित्तमंतं वा सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए। अच्चित्तमंतं वा, खेत्ततो गामे वा गरे वा अरण्णे वा, पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए । कालतो दिया वा रातो वा, भावतो अप्पग्घे वा महग्धे (उ ६।१५) वा। (दअचू पृ८३) संयमी मूनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी अदत्तादान के प्रकार प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को द्रव्यतः-अल्प-बहुत, सूक्ष्म-स्थूल, सचित्त-अचित्त। साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को क्षेत्रतः --ग्राम, नगर, अरण्य । साथ ले, निरपेक्ष हो परिव्रजन करे।। कालत:--दिन-रात। बिडमुन्भेइमं लोणं, तेल्लं सप्पि च फाणियं । भावतः -- अल्पमूल्य और बहुमूल्य । न ते सन्निहिमिच्छति, नायपुत्तवओरया ।। १४. अपरिग्रह महावत लोभस्सेसो अणुफासो, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहीकामे, गिही पव्वइए न से ।। पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं । सव्वं भंते ! परिग्गहं पच्चक्खामि----से गामे वा नगरे (द ६।१७,१८) वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा जो महावीर के वचन में रत हैं, वे मुनि बिडलवण, अचित्तमंत वा, नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हेज्जा नेवन्नेहिं सामुद्रलवण, तैल, घी और द्रव-गुड़ का संग्रह करने की परिग्गहं परिगेण्हावेज्जा परिग्गहं परिगेण्हते वि अन्ने न इच्छा नहीं करते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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