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भावचौर्य के प्रकार और परिणाम
महाव्रत
किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि, एवं संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहत, हास्यादिष्वपि वाच्यम् ।।
(दहाव प १४७) दन्तशोधन मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा मृषा बोलने के मुख्यत: छह हेतु हैं
लिए बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं १. क्रोध से-तू दास है इस प्रकार कहना ।
करवाता और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं २. मान से अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को बहुश्रुत करता । कहना।
इत्तरियं पिन कप्पइ अविदिन्नं खलू परोग्गहाईसं। ३. माया सेभिक्षाटन से जी चुराने के लिए 'पैर में चिद्वित्त निसिइत्त व तइयव्वयरक्खणटाए । पीड़ा है' यों कहना।
(आवनि ७२१) ४. लोभ से--सरस भोजन की प्राप्ति होते देख एषणीय अचौर्य महाव्रत की रक्षा के लिए मुनि दूसरों के नीरस को अनेषणीय कहना ।
अयाचित अवग्रह में थोड़े समय के लिए भी न कायोत्सर्ग ५. भय से -दोष सेवन कर प्रायश्चित्त के भय से उसे करता है और न ही वहां बैठता है। स्वीकृत न करना।
अदिन्नादाणं नाम जं साधूण अणणुणातं । ६. हास्य से-कुतूहलवश असत्य बोलना ।
(आवचू २ पृ ९३) १०. अचौर्य महावत
साधु के लिए जो अनुज्ञात नहीं है, उसका ग्रहण और __तच्चे भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं । आचरण अदत्तादान है ।
सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि-से गामे वा ११. अचौर्य महावत की भावना नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा
तच्चे महव्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं तस्स खलु चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा
___ इमाओ पंच भावणाओ भवंति"....."अणुवीई ओग्गहं नेवन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं
जाएज्जा........."उग्गहणसीलए........."जाव तस्स य
उग्गहे जाव तस्स परिक्खेवे इत्तावता से कप्पति ........... वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न
अणण्णवियपाणभोयणभोई............ अणण्ण विय-ओग्गहसमणुजाणामि ।
(उ ४।सूत्र १३). अणु भंते ! तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती '
जाती से निग्गंथे साधंमिएस् ।
(आवचू २ पृ. १४४,१४५) भंते ! मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है। अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएं
गांव में, नगर में या अरण्य में--कहीं भी अल्प या १. अवग्रह की अनुज्ञा लेना। बहत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी २. अवग्रह का सीमा बोध करना। अदत्त वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों से ३. अनुज्ञात अवग्रह की सीमा में रहना। अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं कराऊंगा और अदत्त वस्तु ४. भक्त-पान का आचार्य आदि को दिखाकर उपभोग ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, याव
करना। ज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से--मन से,
५. सार्मिक द्वारा याचित अवग्रह में उनकी आज्ञा वचन से, काया से-न करूंगा, न कराऊंगा और करने
लेकर रहना। वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
१२. भावचौर्य के प्रकार और परिणाम दंतसोहणमेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया । तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । तं अप्पणा न गेण्हंति, नो वि गेण्हावए परं।
आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिब्बिसं ।। अन्न वा गेण्हमाणं पि, नाणजाणंति संजया ।।
लदधण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिब्बिसे । (द ६।१३,१४) तत्था वि से न याणाइ, कि मे किच्चा इमं फलं ।।
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