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हिंसा का स्वरूप
महाव्रत
२. पांच महाव्रत
प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये पंचहि महत्वहि-पाणाइवायाओ वेरमणं मुसा - ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य वायाओ वेरमण अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्षे -संवृतात्मा परिग्गहाओ वेरमणं । ( आव ४१८ ) साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः । ( दहावृ प १४४, १४५) प्रत्याख्यान में 'प्रति' शब्द निषेध अर्थ में, 'आ' अभिमुख अर्थ में और 'ख्या' धातु कहने के अर्थ में है ।
महाव्रत के पांच प्रकार हैं---
१. प्राणातिपातविरमण ।
प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं, अर्थात् प्राणातिपात के प्रतीप अभिमुख कथन करता हूंप्राणातिपात न करने की प्रतिज्ञा करता हूं। अथवा मैं संवृतात्मा अनागत पाप के प्रतिषेध के लिए आदरपूर्वक - भावपूर्वक अभिधान करता हूं । ४. अहिंसा महाव्रत की भावना
२. मृषावादविरमण ।
३. अदत्तादानविरमण |
४. मैथुनविरमण ।
५. परिग्रहविरमण |
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अहिंस सच्चं च अतेणगं च,
तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि,
चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ || ( उ २१।१२) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पांच महाव्रत हैं ।
३. प्राणातिपात विरमण ( अहिंसा) महाव्रत का
स्वरूप
पढमे भंते ! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं ।
सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि – से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाएज्जा नेवनेहि पाणे अइवायावज्जा पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वाया काणं न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समजाणामि । (द ४, सू ११ ) भंते! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण होता है ।
भंते ! मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं। सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से -मन से, वचन से, काया से न करूंगा न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । पाणावायवेरमणं नामं नाउं सहिऊण पाणाति( दजिचू पृ १४६ )
वायस्स अकरणं भण्णइ ।
प्राणातिपात विरमण का अर्थ है- सम्यक्ज्ञान और श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात से सर्वथा निवृत्त होना ।
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पढमस्स महव्वयस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति-free आलोइयपाणभोयणभोयी आदाणभंडमत्तनिक्वणासमिए सया मणसमिए वइसमिए । ( आवचू २ पृ १४३)
अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएं हैं१. ईर्यासमिति ।
२. आलोकित पान - भोजन । ३. आदाननिक्षेप समिति । ४. मन समिति ।
५. वचन समिति ।
"पंचवीसाए भावणाहि... ( आव ४1८ ) ताओ महत्वयाणं थिरीकरणनिमित्तं भवति । (आवचू २ पृ १४३) महाव्रतों के स्थिरीकरण के लिए पच्चीस भावनाओं का अभ्यास किया जाता है । ५. अहिंसा प्रधान मूलगुण
महव्वतादौ पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणो मूलगुण इति, जेण अहिंसा परमो धम्मो । सेसाणि महव्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । ( अचू पृ८२)
महाव्रतों में प्राणातिपातविरमण प्रधान मूलगुण है । अहिंसा परम धर्म है । शेष महाव्रत अहिंसा को विशिष्ट / पुष्ट बनाते हैं । अतः क्रम की दृष्टि से अहिंसा महाव्रत का प्रथम स्थान है ।
६. हिंसा का स्वरूप
पाणातिपातो नाम पाणाणं साधुमेरा तिक्कमेणपातो ।
( आवचू २ पृ९३)
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