________________
महाव्रत
काल- आवीचिमरण प्रवाह की अपेक्षा अनादि और प्रतिनियत आयुद्रव्य की अपेक्षा सादि भी है । यह अभव्यों की अपेक्षा अपर्यवसित और भव्यों की अपेक्षा पर्यवसित भी है। शेष सोलह मरण एक सामयिक होने से सादि सपर्यवसित हैं । प्रवाह की अपेक्षा इनमें तीनों विकल्प प्राप्त हैं-सादि- सपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित, अनादि- अपर्यवसित । बालमरण अनादि - अपर्यवसित और अनादि-सपर्यंवसित है । पंडितमरण सादि सपर्यवसित है ।' मा मा हु विचितेज्जा जीवामि चिरं मरामि य लहुति । इच्छसि तरिउ जे संसारमहोदहिमपारं ॥ ( उशावृ प २४२ ) यदि तुम संसारसागर से तैरना चाहते हो तो यह मत सोचो कि मैं दीर्घजीवी बनूं या शीघ्र मेरी मृत्यु हो । किर सो पएसो, लोए वालग्गकोडिमेत्तो वि । जम्मणमरणाबाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता ॥ ( उसु प ६७ ) लोक में केश के अग्रभाग जितना भाग भी ऐसा नहीं है, जहां जीव ने जन्म-मरण न किया हो ।
जइ
मरुदेवा - भगवान ऋषभ की माता । इस अवसर्पिणी काल में प्रथम सिद्ध ।
( द्र. तीर्थंकर)
मल्लि - उन्नीसवें तीर्थंकर । महावीर - चौबीसवें तीर्थंकर । महाव्रत -- प्राणातिपात आदि पावद्य
सर्वथा प्रत्याख्यान ।
४. अहिंसा महाव्रत की भावना ५. अहिंसा प्रधान मूलगुण
६. हिंसा का स्वरूप
५२८
१. महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन
२. पांच महाव्रत
* छठा व्रत (द्र. रात्रिभोजन विरमण ) ३. प्राणातिपात विरमण (अहिंसा) महाव्रत का स्वरूप * छह जीवनिकायसंयम : श्रमण का आचार ( . अहिंसा)
O
हिंसा के द्रव्य क्षेत्र-काल- भाव
Jain Education International
( द्र. तीर्थंकर) ( द्र. तीर्थंकर)
योग का
७. सत्य महाव्रत
८. सत्य महाव्रत की भावना * सत्य आदि भाषा के प्रकार * भाषा सम्बन्धी विवेक
९. मृषावाद का स्वरूप
० प्रकार
१०. अचौर्य महाव्रत
११. अचौर्य महाव्रत की भावना
१२. भाव चौर्य के प्रकार और परिणाम
१३. अदत्तादान के प्रकार * ब्रह्मचर्य महाव्रत
१४. अपरिग्रह महाव्रत
१५. अपरिग्रह महाव्रत की भावना १६. परिग्रह के द्रव्य, क्षेत्र
महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन
* परिग्रह के प्रकार
मूर्च्छा परिग्रह
१७. परिग्रह की निकृष्टता
१८. परिग्रहत्याग की निष्पत्ति
महाव्रत और शासनभेद
महाव्रत और चारित्र
o
*
*
(द्र. भाषा) ( व्र. भाषासमिति )
For Private & Personal Use Only
( . ब्रह्मचर्यं )
(द्र. परिग्रह )
( ब्र. शासनभेद )
( द्र. चारित्र )
१. महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन
सावगवयाणि खुड्डुगाणि, ताणि पडुच्च साहूण वयाणि महंताणि भवंति । जम्हा य भगवंतो साधवो तिविहं तिविण पच्चवखायंति तम्हा तेसि महव्वयाणि भवंति, सावयाणं पुणतिविहं दुविहं पञ्चकखायमाणाणं देस विरईए खडुगाणि वाणि भवंति । ( दजिचू पृ १४४, १४६ ) महाव्रत का अर्थ है- महान् व्रत ।
साधु तीन करण और तीन योग से पापों का त्याग करते हैं अतः उनके व्रत महाव्रत होते हैं। श्रावक के दो करण तथा तीन योग आदि के रूप में प्रत्याख्यान होने से देशविरति होती है, अतः उनके व्रत अणु होते हैं । इच्चेयाई पंच महव्वयाई राईभोयणवेरमणछट्टाई अत्तहिपट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ।
(द ४ / सूत्र १७ )
मैं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच महाव्रतों और रात्रिभोजनविरति रूप छठे व्रत को आत्महित- मोक्ष के लिए अंगीकार कर विहार करता हूं ।
www.jainelibrary.org