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गृद्धपृष्ठ और वैहायस मरण
वशार्त्तमरण
......इंदिय विसयवसगया मरंति जे तं वसट्टं तु ॥
( उनि २१७ ) जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर मरण को प्राप्त करते हैं, वह वशात मरण कहलाता है ।
अन्तः शल्यमरण
लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरिअं । जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥ arrai bfनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहंति । दंसणनाणचरिते ससल्लमरणं हवइ तेसि ॥ ( उनि २१८,२१९ ) जो लज्जा, गौरव और बहुश्रुत होने के अभिमान से अतिचारों की गुरु के समक्ष आलोचना न कर दोषपूर्ण अवस्था में मरण को प्राप्त करते हैं, उनका मरण अन्तःशल्यमरण कहलाता है ।
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तद्भव मरण
मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिचि ॥ ( उनि २२१ ) अकर्मभूमि मनुष्य और तिर्यंच तथा देव और नारकों के अतिरिक्त शेष जीवों का मरण तद्भवमरण कहलाता है ।
वर्तमान में जिस भव में है, पुन: उसी भव का आयुष्य बांधकर जो जीव मरता है, वह तद्भवमरण है ।
कर्मभूमिजनरतिरश्चां प्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः तद्धि यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बध्वा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि संख्येयवर्षायुषामेवेति विशेषख्यापकः । असंख्येयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वाद कर्मभूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पादः । तेषामपि न सर्वेषां किन्तु केषाञ्चित् तद्भवोत्पादानुरूपमेवायुः कर्मोपचिन्वतामिति ।
( उशावृ प २२३)
संख्ये वर्षजीवी कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंचों का तद्भवमरण होता है क्योंकि वे ही पुनः उसी भव में उत्पन्न हो सकते हैं । वे वर्तमान में जिस भव में हैं, उसी भव के योग्य आयुष्य बांधकर आयु क्षीण होने पर पुनः वहीं उत्पन्न हो जाते हैं । संख्येयवर्षजीवियों में भी सबका तद्भवमरण नहीं होता, केवल उन्हीं का होता है, जो उस भव के योग्य आयुकर्म का बंध करते हैं ।
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अकर्मभूमिज मनुष्यों की तरह असंख्येयवर्षजीवी कर्मभूमिज मनुष्य यौगलिक होने के कारण देवों में ही उत्पन्न होते हैं ।
मरण
बाल, पंडित और बालपंडितमरण
अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं बिति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ ( उनि २२२ )
बालमरण - अविरत का मरण । पंडित मरण - सर्वविरत ( संयंती ) का मरण । बालपंडितमरण - देशविरत ( संयतासंयती ) मरण ।
छद्मस्थमरण
का
मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं
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( उनि २२३)
मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण के मरण को छद्मस्थमरण कहा जाता है । केवलीमरण
..... केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ ( उनि २२३) केवलज्ञानी का मरण केवलीमरण कहलाता है । गृद्धपृष्ठ और वैहायसमरण
गिद्धाsभक्खणं गिद्धपिट्ठ उब्बंधणार वेहासं । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुष्णाया ॥ गृद्धाः प्रतीतास्ते आदिर्येषां शकुनिकाशिवादीनां तर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानुप्रवेशेन च गृधादिभक्षणं गृध्रः स्पृष्टं - स्पर्शनं यस्मिस्तद्गृध्रस्पृष्टम्, यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्त्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिस्तद्गृध्रपृष्ठम्, सालक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृध्रादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति । पश्चान्निर्दिष्टस्यापि चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम् उत् ऊर्ध्वं वृक्षशाखादौ बन्धनमुद्बन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्बन्धनादि "गृध्र पृष्ठवहायसाख्ये मरणे कारणजाते कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहारादिके उदायिनृपानुमृततथाविधाचार्यवत् अनुज्ञाते, तीर्थंकृद्गणधरादिभिरिति । ( उनि २२४ शावृप २३४, २३५)
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