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मरण
मरणं पि सपुण्णाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं, संजयाण वसीमओ || न इमं सव्वेसु भिक्खुसु न इमं सव्वेसुगारिसु । नाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो ॥ (उ ५।१८, १९)
पुण्यशाली, संयमी और जितेन्द्रिय पुरुषों का मरण प्रसन्न और आघातरहित होता है। सकाम मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के शील वाले होते हैं और भिक्षु भी विषमशील वाले होते हैं । २. मरण के सतरह प्रकार
आवीचि ओहि अंतिय वलायमरणं वसट्टमरणं च । अंतोसल्लं तब्भव बालं तह पंडियं मीसं ॥ छउमत्थमरण केवलि वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च । मरणं भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमणं च ॥ ( उनि २१२,२१३)
मरण के सतरह प्रकार हैं१. आवीचिमरण
२. अवधिमरण
३. अत्यंतमरण
४. वलन्मरण
५. वशार्त्तमरण ६. अन्तः शल्यमरण ७. तद्भवमरण
१५. भक्तपरिज्ञामरण
८. बालमरण
१६. इंगिनीमरण
९. पंडितमरण १७. प्रायोपगमनमरण । (सतरह मरण विभिन्न विवक्षाओं से प्रतिपादित हैं। आवीचि, अवधि, अत्यंत और तद्भव मरण भव की दृष्टि से, वलन्, वैहायस, गृद्धपृष्ठ, वशार्त्त और अन्तःशल्यमरण आत्मदोष, कषाय आदि की दृष्टि से, बाल और पंडित मरण चारित्र की दृष्टि से, छद्मस्थ और केवलिमरण ज्ञान की दृष्टि से तथा भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन मरण अनशन की दृष्टि से प्रतिपादित हैं । समवाओ १७।९ में भक्तपरिज्ञा के स्थान पर भक्त - प्रत्याख्यान नाम । मूलाराधना की विजयोदया वृत्ति में क्रम तथा नामों में भी अन्तर है ।)
आवीचिमरण
१०. बाल - पंडितमरण
११. छद्मस्थमरण
१२. केवलिमरण
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१३. वैहायसमरण
१४. गृद्धपृष्ठ (गृध्रस्पृष्ट)
मरण
अणुसमयनिरंतरमवी इसन्नियं तं भांति पंचविहं । दवे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥
मरण के सतरह प्रकार
प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिक विच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदाऽऽवीचि । ...' अथवा वीचिः विच्छेदस्तदभावादवीचि तत्संज्ञितम् । ( उनि २१५ शावृ प २३१) तरंग । समुद्र और नदी में प्रति
का अर्थ है
क्षण लहरें उठती हैं। वैसे ही आयुकर्म भी प्रतिसमय उदय में आता है और प्रत्येक समय का जीवन प्रतिसमय में होता है । इस प्रकार प्रतिक्षण आयुकर्म के दलिकों की विच्युति आवीचिमरण कहलाता है । अथवा वीचि का अर्थ है --विच्छेद । जिसमें प्रतिक्षण- निरन्तर मृत्यु होती है, बीच में विच्छेद या व्यवधान नहीं होता, वह अवीचिमरण । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से आवीचिमरण के पांच प्रकार हैं । अवधिमरण
एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो । अवधिनाम यानि द्रव्याणि साम्प्रतं आयुष्कत्वेन गृहीतानि पुनरायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति इत्यतो अवधिमरणम् । ( उनि २१६, चू पृ १२७, १२८) जो कर्मद्रव्य वर्तमान आयुष्य के रूप में गृहीत हैं और पुनः आयुष्य के कर्मद्रव्य ग्रहण कर ( नया आयुष्य कर्म बांधकर ) जीव मरता है, वह अवधिमरण है । अत्यंत मरण
.....आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो ॥ आत्यन्तिकं अवधिमरणविपर्यासाद्धि आदियंतियमरणं भवति । तं जहा यानि द्रव्याणि सांप्रतं मरति, न ह्यसौ पुनस्तानि मरिष्यति । ( उनि २१६, चूपृ १२८ ) जीव वर्तमान आयु-कर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण प्राप्त हो, फिर उस भव में उत्पन्न न हो तो उस मरण को अत्यंत मरण कहा जाता है ।
वलन्मरण
संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । ... वलंता क्षुधापरीसहेहि मरंति, ण तु उवसग्गमरणं तितं वलायमरणं । ( उनि २१७, चू पृ १२८ ) जो संयमयोगों में विषण्ण होकर, क्षुधा आदि परीषहों से पराजित होकर मरते हैं, उनकी मृत्यु को वलन्मरण कहा जाता है । यह उपसर्गों से होने वाली मृत्यु नहीं है।
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