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मनुष्य
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मनुष्य की दस अवस्थाएं
सत्तमि च दसं पत्तो, आणपूव्वीइ जो नरो। निठहइ चिक्कणं खेल, खासइ य अभिक्खणं ।। संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अमि दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥ णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ॥ हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दसमि दसं ॥
(दहाव प८,९) १. बाला--यह नवजात शिशु की दशा है। इसमें सुख
दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं होती। २. क्रीड़ा --- इसमें खेलकूद की मनोवृत्ति अधिक होती
है, कामभोग की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती। ३. मन्दा-इस दशा में मनुष्य में काम-भोग भोगने
का सामर्थ्य हो जाता है। वह विशिष्ट बल-बुद्धि के कार्य-प्रदर्शन में मन्द रहता है। ४. बला-इसमें बल-प्रदर्शन की क्षमता होती है। ५. प्रज्ञा-इसमें मनुष्य' स्त्री, धन आदि की चिन्ता करने लगता है और कुटुम्बबुद्धि का विचार करता
७. आरोग्य-स्वस्थता। ८. श्रद्धा। ९. ग्राहक-शिक्षक, गुरु । १०. उपयोग -स्वाध्याय आदि में जागरूकता। ११. अर्थ-धर्म विषयक जिज्ञासा । मनुष्य जन्म : दस अंग तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उति माणुसं जोणि, से दसंगेऽभिजायई ॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दास पोरुसं । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई ।। मित्तवं नायवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने, अभिजाए जसोबले ।
(उ ३।१६-१८) देव अपनी शील आराधना के अनुरूप स्थानों (कल्पों) में रहते हुए आयुक्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं। फिर मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहां दश अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं
१. वे उन कूलों में उत्पन्न होते हैं, जहां चार काम- स्कन्ध-क्षेत्र, वास्तु, पशु और दास-पौरुषेय होते हैं। २. वे मित्रवान् ३. ज्ञातिमान् ४. उच्चगोत्र वाले ५. वर्णवान् ६. नीरोग ७. महाप्रज्ञ ८. अभिजात (शिष्ट, विनीत) ९. यशस्वी और १०. बलवान होते हैं। १८. मनुष्य को दस अवस्थाएं बाला किड्डा मंदा बला य पन्ना य हायणि पवंचा। पब्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालदसा ।। जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहुं जाणंति बालया॥ बिइयं च दसं पत्तो, णाणाकिड़ाहिं किडइ । न तत्थ कामभोगेहिं, तिव्वा उप्पज्जई मई ।। तइय च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो। समत्थो भंजिउं भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा । च उत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो ॥ पंचमि तु दसं पत्तो, आण पुव्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचितेइ, कुडुंबं वाऽभिकखई ।। छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ।।
६. हायनी-इसमें मनुष्य भोगों से विरक्त होने लगता
है और इन्द्रियबल क्षीण हो जाता है। ७. प्रपञ्चा -इसमें मुंह से थक गिरने लगता है, कफ
बढ़ जाता है और बार-बार खांसना पड़ता है। ८. प्रारभारा-इसमें चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती हैं
और बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारी-वल्लभ नहीं रहता। ९. मृन्मुखी इसमें शरीर जरा से आक्रान्त हो जाता
है । जीवन-भावना नष्ट हो जाती है। १०. शायनी-इसमें व्यक्ति हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन.
विपरीत, विचित्त (चित्तशून्य), दुर्बल और दुःखित हो जाता है। यह दशा व्यक्ति को निद्राणित जैसा बना देती है।
(सामान्यतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है। वह दस-दस वर्ष के अनुपात में बाला, क्रीडा आदि दस अवस्थाओं में विभक्त है। आचारांग सूत्र में सौ वर्ष के संपूर्ण आयु के तीन विभाग किए गये हैं -
प्रथम वय-३० वर्ष तक । मध्यम वय-६० वर्ष तक । अंतिम वय--१०० वर्ष तक ।
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