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अन्तद्वपज मनुष्य
(सूत्रकार ने अठाईस अन्तद्वीपों का उल्लेख किया है । यह हिमवत् के पाद में प्रतिष्ठित अन्तद्वीपों का ही कथन है । शिखरी के पाद में भी अठाईस अन्तद्वीप हैं ) । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६।२०३) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से मनुष्य के हजारों भेद होते हैं ।
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२. कर्मभूमिज मनुष्य
• कृषिवाणिज्य तपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो - भरतपञ्चकैरवतपञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणाः पञ्चदश तासु जाताः कर्मभूमिजाः । ( नन्दीमवृप १०२ ) जिसमें कृषि, व्यापार आदि कर्म तथा संयम, तप आदि अनुष्ठान होते हैं, वह कर्मभूमि कहलाती है । वे कर्मभूमियां पन्द्रह हैं पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह । इनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं ।
३. अकर्म भूमिज मनुष्य कृष्यादिकर्म्मरहिताः कल्पपादपफलोपभोग प्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्ष पञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चक हैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिशदकर्मभूमयः । ( नन्दीमवृप १०२ )
जो कृषि आदि कर्म से रहित है, जहां कल्पवृक्षों से आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं, वह अकर्मभूमि कहलाती है । अकर्मभूमियां तीस हैं - पांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु, पांच रम्यक्वास, पांच हैरण्यवत | इन अकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमि कहलाते हैं ।
४. अन्तद्वीप मनुष्य
अन्तरे - लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वपा:एको रुकादयः षट्पञ्चाशत् तेषु जाताः अन्तरद्वीपजाः । ( नन्दी मवृ प १०२ ) लवणसमुद्र के मध्य जो एकोरुक आदि छप्पन द्वीप हैं वे अन्तद्वीप कहलाते हैं। वहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यच अन्तद्वपज कहलाते हैं ।
अन्तरद्वीपवासिनो मनुष्या वज्रर्षभनाराचसंहनिनः
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मनुष्य
समचतुरस्र संस्थानसंस्थिताः समग्र शुभलक्षण तिलकमषपरिकलिता देवलोकानुकारिरूपलावण्यालङ्कारशोभितविग्रहाः । अष्टधनुः शतप्रमाणशरीरोच्छ्रायाः । स्त्रीणां त्विदमेव किञ्चिन्न्यूनं द्रष्टव्यं तथा पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणायुषः ।
स्त्रीपुरुष युगलव्यवस्थिताः । दशविधकल्पपादपसम्पाद्योपभोगसम्पदः । प्रकृत्यैव शुभचेतसो विनीताः प्रतनुक्रोधमानमायालोभाः सन्तोषिणो निरौत्सुक्याः कामचारिrisोमवायुवेगाः । सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादिके ममत्वकारिणि ममत्वाभिनिवेशरहिताः । सर्वथापगतवैरानुबन्धाः । परस्परप्रेष्यादिभावविनिर्मुक्ता, अत एवाहमिन्द्राः । हस्त्यश्वकरभगोमहिष्यादीनां सद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारचारिणो रोगवेदनादिविकला वर्त्तन्ते । चतुर्थाहारमेते गृह्णन्ति । चतुः षष्टिश्च पृष्ठकरण्डकास्तेषाम् ।
षण्मासावशेषायुषश्चामी स्त्रीपुरुषयुगलं प्रसुवते । एकोनाशीतिदिनानि च तत् परिपालयन्ति । स्तोकस्नेहकषायतया च ते मृत्वा देवलोकमुपसर्पन्ति । तेषु च द्वीपेषु शाल्यादीनि धान्यानि विस्रसात एव समुत्पद्यन्ते परं न ते मनुष्यादीनां परिभोगाय जायन्ते ।
( नन्दीमवृप १०४ ) संहनन संस्थान - अन्तद्वपज मनुष्यों के वज्रऋषभ - नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है । उनकी पृष्ठरज्जु में चोसठ करण्डक (मनके) होते हैं ।
रूपलावण्य - उनका सौन्दर्य देवों के तुल्य होता है ।
उनका शरीर तिल, मष आदि समग्र शुभ लक्षणों से युक्त और अलंकारों से अलंकृत होता है । अवगाहना और आयुष्य - पुरुषों की अवगाहना आठ सौ
धनुष और स्त्रियों की अवगाहना इससे कुछ कम होती है । इनका आयुष्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है ।
व्यवस्था, स्वभाव आदि - वे स्त्री और पुरुष युगलरूप में रहते हैं । इस यौगलिक व्यवस्था में आहार, वस्त्र आदि संबंधी आवश्यक कार्य दस प्रकार कल्पवृक्षों से सम्पादित होते हैं। उनमें स्वामी सेवक आदि का भेद नहीं होता, अतः वे अहमिन्द्र होते हैं, सभी स्वामी होते हैं । वहां हस्ति, अश्व, ऊंट, गाय,
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