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मनुष्य
छप्पन अन्तर्वीप
भैस आदि पशु होते हैं। योगलिक उनका उपयोग योजनशतान्यायामविस्तराभ्यां प्रथमेऽन्तरद्वीपाः, ततोऽप्येनहीं करते । वे पादविहारी होते हैं।
कैकयोजनशतवृद्धावगाहनया योजनशतचतुष्टयाद्यायामवे स्वभाव से ही शुभ चित्त वाले और विनीत होते विस्तरा द्वितायादयः षट्,"""प्रथमस्य
विस्तरा द्वितीयादयः षट्,"""प्रथमस्य चतुष्कस्य हैं। उनके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतन-उपशान्त एकोहक आभाषिको लांगुलिको वषाणिक इति नाम, होते हैं। वे संतोषी और औत्सुक्यविहीन होते हैं। वे द्वितीयस्य """सप्तमस्य घनदन्तो गूढदन्तः श्रेष्ठदन्तः स्वतंत्र विचरण करने वाले और अनुलोम वायुवेग वाले शुद्धदन्त इति । एतन्नामान एव चैतेषु युगलधार्मिका होते हैं । सहज समुपलब्ध चित्ताकर्षक मणि, मुक्ता, स्वर्ण प्रतिवसन्ति ।
(उशाव प ७००) आदि में उनकी ममत्वबुद्धि नहीं होती। वे वैरभाव से हिमवान् पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सर्वथा मुक्त होते हैं। वे सब प्रकार के रोगों और सौ योजन लवण समद्र के भीतर, तीन-तीन सौ योजन वेदनाओं से मुक्त होते हैं।
आयाम-विस्तार वाले प्रथम चार अन्तर्वीप हैं। इसी माहार-वे एक दिन के अन्तर से आहार करते हैं। प्रकार लवण समद्र के भीतर क्रमशः चार सौ, पांच सौ,
अन्तीपों में शालि आदि धान्य स्वभाव से ही छह सौ, सात सौ, आठ सौ तथा नौ सौ योजन आगे चारों उत्पन्न होते हैं, किन्तु वहां के मनुष्य इनका परि- विदिशाओं में चार-चार अन्तर्वीप हैं। इस प्रकार सात भोग नहीं करते।
श्रेणियों में एक-एक चतुष्क अन्तर्वीप हैं। अर्थात् ७४४ संततिक्रम · जब उनकी आयु छह मास शेष रहती है,
=२८ अन्तर्वीप हैं। उनके नाम ये हैंतब वे एक युगल (पुत्र और पुत्री) को जन्म देते हैं
पहला चतुष्क-एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक,वैषाणिक । और उन्यासी दिन तक उस युगल का पालन ---
दूसरा चतुष्क-हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कूलीकर्ण । संरक्षण करते हैं।
तीसरा चतुष्क-आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख, गजमुख । गति-राग और द्वेष (आवेश-आवेग) की अल्पता के
चौथा चतुष्क - अश्वमुख, हस्तिमख, सिंहमूख, व्याघ्रमुख । कारण वे मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते
पांचवां चतुष्क -अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण, कर्ण
प्रावरण । ५. अन्तर्वीपज तिर्यञ्च
छठा चतुष्क - उल्कामुख, विद्युन्मुख, जिह्वामुख, मेघमुख । व्याघ्रसिंहसदियो रौद्रभावरहिततया न परस्पर सातवां चतुष्क - घनदन्त, गूढदन्त, श्रेष्ठदन्त, शुद्धदन्त । हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते । तत एव तेऽपि देवलोकगामिनो
इसी प्रकार छठे शिखरी पर्वत के लवण समद्रगत भवन्ति ।
(नन्दामवृप १०४) इन्हीं नामवाले अन्य अठाईस अन्तर्वीप हैं। अन्तर्वीप के व्याघ्र, सिंह, सर्प आदि तिर्यञ्च रौद्र
दोनों को मिलाने पर २८+२८=५६ अन्तर्वीप भाव से रहित होते हैं। उनमें परस्पर हिंस्य-हिंसक भाव
होते हैं। इनमें रहनेवाले युगलधर्मा मनुष्य तद्-तद् नाम नहीं होता, इसलिए वे भी देवलोकगामी होते हैं।
वाले होते हैं । (देखें -जीवाजीवाभिगम ३।२१६)। ६. छप्पन अन्तर्वीप
क्षेत्रीय वैशिष्ट्य तिण्णि जोयणसते लवणजलमोगाहित्ता चुल्ल हिमवंतसिहरिपादपतिट्ठिता एगूरुगादि छप्पण्णं अंतरदीवगा। तेषु च द्वीपेषु दंशमशकयूकामत्कुणादय शरीरोपद्रव
(नन्दीचू पृ २२) कारिणोऽनिष्टसूचकाश्च चन्द्रसूर्योपरागादयो न भवन्ति । लवणसमुद्र में तीन सौ योजन भीतर चल्लहिमवान्
भूमिरपि तत्र रेणुपङ्ककण्टकादिरहिता सकलदोषपरित्यक्ता के पाद में एकोहक आदि अठाईस अन्तर्वीप तथा शिखरी सर्वत्र समतला रमणीया च वर्त्तते । (नन्दीमवृ प १०४) के पाद में एकोहक आदि अन्य अठाईस अन्तर्वीप
उन अन्तर्वीपों में शारीरिक उपद्रव पैदा करने वाले प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार छप्पन अन्तर्वीप हैं।
डांस, मच्छर, जूं, खटमल आदि नहीं होते । अनिष्ट के ____ अन्तरद्वीपानां हिमवतः पूर्वापरप्रान्तविदिक्प्रसृत- सूचक चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी नहीं होते। वहां की कोटिषु त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य तावन्त्येव भूमि धूलि, कीचड़ और कांटों से रहित होती है। वह
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