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मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य
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मनःपर्यवज्ञान
पर्यवज्ञान से मनोद्रव्यों को जानता है तथा मानस अचक्ष- तोऽतीतानागतपल्योपमासंख्येयभागविषयं, भावतो दर्शन से उन्हीं को देखता है ।
मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायालम्बनम् । ततोऽवधिज्ञानाद् वह विशेष उपयोग की अपेक्षा से जानता है, सामान्य । भिन्नम् ।
(नन्दीमत् प १११) अर्थोपयोग की अपेक्षा से देखता है।
अवधिज्ञान ८. मनःपर्यव दर्शन नहीं होता
१. स्वामी-अविरतसम्यगदष्टि, देशविरत, विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया सामान्य
सर्वविरत । रूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्यवहारतो दर्शनरूप उक्तः ।
२.विषय परमार्थतः पुनः सोऽपि ज्ञानमेव, यत: सामान्यरूपमपि ० द्रव्य से-अशेष रूपी द्रव्य । मनोद्रव्याकारप्रतिनियतमेव पश्यति । प्रतिनियतविशेष
० क्षेत्र से पूरा लोक और अलोक में लोकग्रहणात्मकं च ज्ञानं न दर्शनम । अत एव सूत्रेऽपि दर्शनं
प्रमाण असंख्येय खण्ड । चतुर्विधमेवोक्तं न पञ्चविधमपि, मनःपर्यायदर्शनस्य
० काल से-असंख्येय अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी परमार्थतोऽसम्भवादिति । (नन्दीमवृ प १०९)
प्रमाण अतीत-अनागत काल । विशिष्टतर मनोद्रव्य के ज्ञान की अपेक्षा से ही
० भाव से--प्रत्येक रूपी द्रव्य के असंख्येय सामान्यरूप मनोद्रव्य के ज्ञान को व्यवहार में दर्शन कहा
पर्याय । गया है । वास्तव में वह भी ज्ञान ही है। क्योंकि सामान्य
मनःपर्यवज्ञान रूप होने पर भी वह प्रतिनियत मनोद्रव्य को ही देखता है। प्रतिनियत-विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही
१. स्वामी-ऋद्धि सम्पन्न अप्रमत्त संयत । होता है, दर्शन नहीं। इसलिए आगम में भी चार दर्शन
२. विषय (चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवल) प्रतिपादित हैं, पांच नहीं।
० द्रव्य से--संज्ञी जीवों का मनोद्रव्य । मनःपर्यवदर्शन वस्तुत: नहीं होता।
० क्षेत्र से मनुष्य क्षेत्र। ___ मनःपर्यायज्ञानं मनोद्रव्याणां पर्यायानेव गृह्णन् उप
० काल से-पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण जायते । पर्यायाश्च विशेषाः । विशेषग्राहकं च ज्ञानमतो
अतीत-अनागतकाल । मनःपर्यायज्ञानमेव भवति, न तु मनःपर्यायदर्शनम् ।
• भाव से-मनोद्रव्य के अनन्त पर्याय ।
(आवमव प ८२) मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य मनःपर्यवज्ञान में क्षयोपशम की पटुता होती है, अतः
..."छउमत्थ-विसय-भावादिसामण्णा ॥ (विभा ८७) वह मनोद्रव्य के पर्यायों को ही ग्रहण करता हुआ उत्पन्न
दोनों ज्ञान छद्मस्थ के होते हैं। होता है । पर्याय विशेष होते हैं। विशेष का ग्राहक ज्ञान
दोनों ज्ञानों का विषय है-रूपीद्रव्य । है, इसलिए मन:पर्यव ज्ञान ही होता है, मनःपर्यव दर्शन
दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं। नहीं होता।
दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। ६. मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर
१०. मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य अवधिज्ञानमविरतसम्यगदष्टेरपि भवति । द्रव्य
यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेव भवति एवं केवलतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो लोकविषयं कतिपयलोकप्रमाणक्षेत्रापेक्षया अलोकविषयं च । कालतोऽतीतानागता
ज्ञानमप्यप्रमत्तभावयतेरेवेति साधर्म्यम् ।....... यथा
मन:पर्यायज्ञानं विपर्ययज्ञानं न भवति एवं केवलज्ञानमसंख्येयोत्सप्पिणीविषयं, भावतोऽशेषेषु रूपिद्रव्येषु । प्रतिद्रव्यमसंख्येयपर्यायविषयम् । मनःपर्यायज्ञानं पुनः पीति साधर्म्यम् ।।
(नन्दीहाव पृ २०) संयतस्याप्रमत्तस्यामषौषध्याद्यन्यतद्धिप्राप्तस्य। द्रव्यतः . जैसे मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त यति के होता है, वैसे ही संज्ञिमनोद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो मनुष्यक्षेत्रगोचरं, काल- केवलज्ञान भी अप्रमत्त यति के होता है।
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