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मनःपर्यवज्ञान
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मनःपर्य वज्ञानी अचक्षु दर्शन से देखता है विषयविभाग की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञान चार ६. मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता प्रकार का है
"""पन्नवणाए मणपज्जवनाणपासणा भणिया ।.... १. द्रव्यत:--द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी
मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकृष्टेक्षणलक्षणा साकारोपयोगमनोवर्गणा के अनंत-अनंतप्रदेशी स्कन्धों को जानता विशेषरूपा पश्यत्ता प्रोक्ता, तयवासौ मन:पर्यायज्ञानी देखता है । विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन स्कंधों को पश्यति इति व्यपदिश्यते । (विभा ८२२ मवृ पृ ३३६) अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और उज्ज्वलतर
प्रज्ञापना आगम (३०।२) में मनःपर्यवज्ञान की रूप से जानता देखता है।
प्रकृष्ट दर्शन लक्षण वाली विशिष्ट, ज्ञानोपयोगरूप २. क्षेत्रत:-क्षेत्र की दृष्टि से ऋजूमति मनःपर्यवज्ञानी
पश्यत्ता बतलाई गई है। उसी पश्यत्ता से मन:पर्यवज्ञानी नीचे की ओर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊध्र्ववती देखता है। क्षुल्लकप्रतर से अधस्तन क्षुल्लकनतर तक, ऊपर की ओर ज्योतिष्चक्र के उपरितल तक, तिरछे भाग में ७. मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है मनुष्यक्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र (ढाई अंगुल सो य किर अचक्खुदंसणेण पासइ जहा सुयन्नाणी।" हीन) तक, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों
(विभा ८१५) और छप्पन अन्तर्वीपों में वर्तमान पर्याप्त समनस्क जैसे श्रुतज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है, वैसे ही मन: पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता देखता पर्यवज्ञानी अचक्ष दर्शन से देखता है। है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उस क्षेत्र से अढ़ाई मनःपर्यायदर्शनं भिन्नं नोक्तं, कथं 'पश्यति' इत्यूअंगुल अधिकतर (सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र) विपुलतर च्यते ? अचक्षुर्दर्शनाख्यं मनोरूपनोइन्द्रियं दर्शनविषयविशुद्धतर और उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता देखता
मस्य द्रष्टव्यम्, तेनास्य दर्शनसम्भवः । परस्य घटादिकमर्थं
चिन्तयतः साक्षादेव मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि ताव३. कालतः --काल की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यव- ज्जानाति, तान्येव च मानसेनाचक्षुर्दर्शनेन विकल्पयति । जानी जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग को, अतो मानसाचक्षदर्शनापेक्षया पश्यतीत्युच्यते। ततश्चैकउत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और स्यैव मनःपर्यायज्ञानिनः प्रमातुर्मनःपर्यायज्ञानादनन्तरभविष्य को जानता देखता है। विपुलमति मन:- मेव मानसाचक्षदर्शनमूत्पद्यते इत्यसावेक एव प्रमाता मन:पर्यवज्ञानी उस कालखण्ड को अधिकतर विपूलतर पर्यायज्ञानेन मनोद्रव्याणि जानाति, तान्येव चाचक्षदर्शनेन विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता देखता है। मानसेन पश्यतीत्यभिधीयते ।"विशेषोपयोगापेक्षया ४. भावत:-भाव की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यव- जानाति, सामान्यार्थोपयोगापेक्षया पश्यतीत्युक्तम । ज्ञानी अनंतभावों को जानता देखता है, सब भावों
(नन्दीहावृ पृ १२२) के अनन्तवें भाग को ही जानता देखता है । विपुल
मनःपर्यव दर्शन स्वतंत्ररूप से प्रतिपादित नहीं है, मति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिकतर,
तब 'पश्यति' का प्रयोग क्यों ? अचक्षुदर्शननामक मनविपुलतर विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता देखका
रूप नोइन्द्रिय इसके दर्शन का विषय है, इसलिए दर्शन
सम्भव है। ५. मनःपर्यवज्ञान की अर्हता
कोई व्यक्ति घट का चिंतन कर रहा है। मनःपर्यव........'इडिढपत्त-अपमत्तसंजय-सम्मदिदि-पज्जत्तग- ज्ञानी उसके मनोद्रव्यों को साक्षात् जानता है और मानस संखेज्जवासाउयकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणस्साणं......" अचक्षुदर्शन से उन्हीं का विकल्प करता है। अत: मानस मणपज्जवनाणं समुपज्जइ।
(नन्दी २३) अचक्षुदर्शन की अपेक्षा से सूत्रपाठ में 'पासइ' का प्रयोग मनः पर्यवज्ञान ऋद्धिप्राप्त (लब्धि प्राप्त), अप्रमत्त- हआ है। संयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक, संख्यात वर्ष आयुष्य वाले, एक ही मनःपर्यवज्ञानी प्रमाता के मनःपर्यवज्ञान के कर्मभूमि में उत्पन्न गर्भज मनुष्यों को होता है ।
बाद ही मानस अचक्षुदर्शन पैदा होता है। वह मन:
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