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मनःपर्यवज्ञान का विषय
मनःपर्यवज्ञान
संज्ञी जीव द्वारा मनरूप में परिणत अनन्तप्रदेशी विपूलमति
के स्कन्ध तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को विउलं वत्थु विसेसणमाणं तग्गाहिणी मई विउला । मनःपर्यवज्ञानी साक्षात् देखता है । वह चितित पदार्थ को चितियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ।। प्रत्यक्ष नहीं देखता, अनुमान से देखता है, इसलिए उसकी
(विभा ७८५) पश्यत्ता बताई गई है। मन का आलम्बन मूर्त-अमूर्त घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्ण: पाडलिपूत्रकोऽद्यदोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छदमस्थ अमूर्त को तनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायसाक्षात् नहीं देख सकता।
हेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः । (मनःपर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान
(नन्दीमवृ प १०८) वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अस्वथाएं हैं
विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। अमुक व्यक्ति ने इस विषय में जैन परम्परा में मतैक्य नहीं है। निर्यक्ति- घड़े का चिन्तन किया है। वह घड़ा सोने का बना हुआ कार ने पहला पक्ष मान्य किया है। चूर्णिकार ने इसी
है, पाटलिपुत्र में निर्मित है, आज ही बना है, आकार में गाथा की व्याख्या में लिखा है कि मनःपर्यवज्ञान अनन्त
बड़ा है, कक्ष में रखा हुआ है, फलक से ढका हुआ है
इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट प्रदेशी मन के स्कन्धों तथा तदगत वर्ण आदि भावों को
मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। प्रत्यक्ष जानता है । चिन्त्यमान विषय वस्तु को साक्षात् नहीं जानता क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमर्त ४. मनःपयवज्ञान का विषय दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य
तं समासओ चउम्विहं पण्णत्तं तं जहा-दव्वओ, अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसलिए मनः- खेत्तओ, कालओ, भावओ। पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है। ० दव्वओ णं उज्जुमई अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ इसीलिए मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पन्नवणा ३०।२) पासइ। ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलका निर्देश भी दिया गया है। विशेषावश्यक भाष्य में भी तराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । दूसरे पक्ष का अनुसरण किया गया है। देखें-नन्दी सूत्र ० खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए २३ का टिप्पण)
पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डागपयरे, उड्ढं जाव
जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते ३. मनःपर्यवज्ञान के प्रकार
अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु (अर्धतृतीयाङ्गुलहीनेषु-- ___तं च दुविहं उप्पज्जइ, तं जहा-उज्जुमई य आवमवृ प ८२), पण्णरससु कम्मभूमीसु, तीसाए विउलमई य।
(नन्दी २४) अकम्मभूमीसु, छप्पण्णए अंतरदीवगेसु सण्णीणं ___ मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं—ऋजुमति और पंचेंदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ । विपुलमति ।
तं चेव विउलमई अड्ढाइज्जेहिमंगुलेहिं अब्भहियतरं
विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरं खेत्तं जाणइ ऋजुमति
पासइ। रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजूमई मणोनाणं ।
० कालओ णं उज्जुमई जहण्णेणं पलिओवमस्स पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतियं मुणइ ।।
असंखिज्जयभाग उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असं(विभा ७८४)
खिज्जयभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ । ऋजु का अर्थ है - सामान्य । जो सामान्य रूप से तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनोज्ञान है। यह विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ । प्रायः विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मन:- ० भावओ णं उज्जुमई अणते भावे जाणइ पासइ, पर्यवज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ। तं चेव का चिन्तन किया है। देश, काल आदि से सम्बद्ध घट के विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं अन्य अनेक पर्यायों को वह नहीं जानता ।
वितिमिरतरागं जाणइ पासइ । (नन्दी २५)
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