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मंत्र-विद्या
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योगसिद्ध : आर्य समित
यत्र तु देवता पुरुष: स मन्त्रः, यथा विद्याराजः, की ओर प्रस्थित हो गए। वहां के एक परिव्राजक को हरिणेगमेषिरित्यादि। (आवनि ९३१ हावृ पृ २७४) जैन मुनियों ने पराजित किया था । वह मरकर गुडशस्त्र
जिस मंत्र में स्त्रीदेवता अधिष्ठात्री हो, वह विद्या नगर में व्यंतर देव बना। वह सभी मुनियों को पीडित है। जैसे--अम्बा, कुष्माण्डी आदि। जिसमें पुरुषदेवता करने लगा। आचार्य खपुट इसी प्रयोजन से वहां गए अधिष्ठाता हो, वह मंत्र है। जैसे-विद्याराज, हरिणेग- और व्यन्तर की प्रतिमा के दोनों कानों में दो जते लटका मेषि आदि । अथवा जिसे साधा जाये, वह विद्या है और दिए । पुजारी ने देखा। उसने राजा से शिकायत की। जो बिना साधे ही पठितसिद्ध हो, वह मंत्र है।
राजा ने आचार्य को लाठियों से पीटने का आदेश
दिया। लाठी के प्रहार आचार्य की पीठ पर हो रहे थे, ३. मंत्रसिद्ध : स्तम्भाकर्ष
पर रानियों की पीठे लहूलुहान हो रही थीं। राजा ने साहीणसव्वमंतो बहमंतो वा पहाणमंतो वा ।
चमत्कार जान लिया। नेओ स मंतसिद्धो खंभागरिसूव्व साइसओ।
आचार्य खपुट का बालमुनि भानेज भृगुकच्छ गया (आवनि ९३३)
और वहां आहार में गृद्ध होकर बौद्ध भिक्षु बन गया। जिसने सर्व मंत्रों को अथवा अनेक मंत्रों को अथवा
अब वह अपने विद्याबल से गहस्थों के घर से सरस-सरस किसी एक प्रधान मंत्र को सिद्ध कर लिया, वह मंत्रसिद्ध
भोजन के भरे पात्र आकाशमार्ग से मंगाने लगा। जनता कहलाता है। इसमें स्तम्भाकर्ष का दृष्टान्त ज्ञेय है--
में आक्रोश फैला । आचार्य खपुट वहां गए और अपने एक बार एक विषयलोलुप राजा ने एक सुन्दर साध्वी विद्याबल से आकाशमार्ग से आनेवाले खाद्य से भरे-पूरे को पकड़ लिया। सारा संघ एकत्रित हुआ । एक मंत्रसिद्ध भाजनों को फोड़ डाला ! शिष्य वहां से भाग गया। आचार्य ने राजा के आंगन के सभी स्तम्भों को अभि
आचार्य बोद्धों के मठ में गए । बौद्ध भिक्षुओं ने कहा मंत्रित कर दिया। वे सारे स्तम्भ आकाश में उठे और -आओ, बुद्ध प्रतिमा के चरणों में नमस्कार करो। खट खट करने लगे। उस समय प्रासाद के स्तम्भ भी आचार्य खपूट तत्काल प्रतिमा को सम्बोधित कर बोले ---- प्रकंपित हो उठे। राजा भयभीत हुआ। साध्वी को शुद्धोदनसुत ! आओ, मुझे प्रणाम करो । बुद्ध की प्रतिमा ससम्मान विसर्जित कर संघ से क्षमायाचना की। से बुद्ध ने आकर आचार्य के चरणों में प्रणाम किया । द्वार
(आवहाव १ पृ २७५) पर स्थित स्तूप से कहा- आओ, प्रणाम करो। स्तूप ने ४. विद्यासिद्ध : आर्य खपुट
आकर प्रणाम किया। आचार्य बोले-उठ। वह स्तूप
उठा और आचार्य की आज्ञा से अर्धावनत हो वहीं स्थित विज्जाण चक्कवट्टी विज्जासिद्धो स जस्स वेगावि ।
हो गया।
(आवहाव १ पृ २७४,२७५) सिज्झिज्ज महाविज्जा विज्जासिद्धज्जखउडुव्व ॥
५. योगसिद्ध : आर्य समित
(आवनि ९३२) सभी विद्याओं का अधिपति "विद्यासिद्ध' कहलाता
सव्वेवि दव्वजोगा परमच्छरयफलाऽहवेगोऽवि ।
जस्सेह हज्ज सिद्धो स जोगसिद्धो जहा समिओ ।। है। अथवा जिसके एक महाविद्या भी सिद्ध हो जाती है,
(आवनि ९३४) वह आचार्य खपूट की भांति 'विद्यासिद्ध' कहलाता है।
विभिन्न द्रव्यों के विभिन्न योग आश्चर्य पैदा करने आचार्य खपूट वीरनिर्वाण की चौथी शताब्दी के ,
वाले होते हैं। एक द्रव्य का योग भी जिसके सिद्ध हो महान् विद्यासिद्ध आचार्य थे। उनके पास उनका भानजा
निजा जाता है वह योगसिद्ध कहलाता है, जैसे आर्यसमित ।
भी दीक्षित था। वह बालक था। उसने आचार्य से कुछ आभीर जनपद में वेना नदी के तट पर तापसों का विद्याएं सुन-सुनकर ग्रहण कर लीं। यह माना जाता है
एला । यह माना जाता ह आश्रम था। वहां एक तापस पादुका पहनकर पानी पर कि विद्यासिद्ध व्यक्ति को नमस्कार करने से भी विद्याएं
चलकर नदी के उस पार जाता-आता था। जनता में प्राप्त हो जाती हैं। एक बार आचार्य खपूट अपने मुनि चमत्कार हआ। अनेक लोग भक्त बन गए। श्रावकों की भानजे को साधुओं के पास छोड़कर, स्वयं गुडशस्त्रनगर निन्दा होने लगी। एक बार आर्यसमित वहां आए। जब
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