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मंगल का प्रयोजन
नोआगमतः भावमंगल के अन्य प्रकार--- ० ज्ञान - दर्शन - चारित्र के उपयोग में उपयुक्त हो प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं करना ।
स्तुति से पूर्व नमस्कार आदि में ज्ञानोपयोग से युक्त बद्धांजलि हो नमस्कार क्रिया करना ।
यहां 'नो' शब्द मिश्रवाची अथवा एक देशवाची है । यहां केवल आगम / ज्ञान या केवल नोआगम / क्रिया नहीं है। ज्ञानोपयोग और क्रिया से मिश्रित परिणाम है । उत्कृष्ट मंगल
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धम्म मंगलमुट्ठि अहिंसा संजमो तवो । (द १1१) धर्म उत्कृष्ट मंगल है । उसका स्वरूप है अहिंसा, संयम और तप ।
चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगल केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।
मंगलं साहू ( आव ४।२ )
अर्हत्, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म – ये चारों भावमंगल हैं ।
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७. द्रव्यमंगल और भावमंगल में अन्तर
दवमंगलं अणेगं तिगं अणच्चन्तियं च भवति । भावमंगलं पुण एगंतियं अच्चतियं च भवइ । ( दजिचू पृ १९ )
द्रव्यमंगल में ऐकान्तिक सुखप्राप्ति व आत्यन्तिक दुःख विनाश नहीं होता । भावमंगल ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है |
८. मंगल का प्रयोजन
श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ ततोऽस्य प्रारम्भ एव मङ्गलाधिकारे नन्दिर्व क्तव्यः ।
सकलप्रत्यू होपशमनाय
( नन्दीमवृप १) श्रेयस्कर कार्यों में विघ्न आते रहते हैं । इसलिए प्रत्येक शास्त्र के प्रारम्भ में विघ्नों के उपशमन के लिए मंगल अधिकार रहता है / मंगलाचरण किया जाता है ।
तं मंगलमाईए मझे पज्जन्तए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय निद्दिट्ठ ॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स पसिस्साइवंसस्स ॥
( विभा १३, १४ )
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मंत्र - विद्या
शास्त्र के आदि में, मध्य में और अन्त में मंगल किया जाता है । शास्त्र के अर्थ का निर्विघ्न पार पाने के लिए आदि में मंगल किया जाता है। प्राप्त अर्थ की स्थिरता के लिए मध्य में मंगल किया जाता है । शिष्यप्रशिष्य की परम्परा की अव्यवच्छित्ति के लिए शास्त्र के अंत में मंगल किया जाता है ।
मंगलपरिगहिया य सिस्सा अवग्गहेहा-वायधारणासमत्था सत्थाणं पारगा भवंति । ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति । (दअचू पृ १ ) मंगलाचरण करने वाले शिष्य अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा में समर्थ और शास्त्रों के पारगामी होते हैं । उनका शास्त्रीय ज्ञान निरंतर वर्धमान होता हुआ लोक में प्रसिद्धि प्राप्त करता है ।
मंत्र-विद्या - विशिष्ट प्रकार का वर्ण विन्यास |
१. मंत्र का अर्थ
२. मंत्र और विद्या में अन्तर
३. मंत्रसिद्ध : स्तम्भाकर्ष
४. विद्यासिद्ध: आर्य खपुट
५. योगसिद्ध : आर्य समित
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वृक्ष आयुर्वेद और योनिप्राभृत
६. आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या
* विद्याचारण आदि लब्धियां ७. चार महाविद्याएं
८. वृश्चिक आदि विद्याएं * नमस्कार मंत्र
( द्र लब्धि )
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( द्र. नमस्कार महामंत्र )
१. मंत्र का अर्थ
मन्त्रम् ॐकारादिस्वाहापर्यन्तो ह्रीँ कारादिवर्णविन्यासात्मकः । ( उशावृ प ४१७ ) जिसके आदि में 'ओम्' और अन्त में 'स्वाहा' होता है, जो 'ह्रीं' आदि वर्णविन्यासात्मक होता है, उसे 'मंत्र' कहा जाता है ।
२. मंत्र और विद्या में अन्तर
इत्थी विज्जाऽभिहिया पुरिसो मंतुति तव्विसे सोयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतुत्ति ॥ यत्र मन्त्रे देवता स्त्री सा विद्या, अम्बाकुष्माण्ड्यादि ।
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