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मंगल
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भावमंगल
तव्यतिरिक्त द्रव्य शंख के तीन प्रकार हैं-(१) शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय अभिमुखनामगोत्र एकभविक (२) बद्धायुष्क (३) अभिमुख नामगोत्र। शंख को मान्य करते हैं। __एकविक-जो जीव वर्तमान जीवन पूरा कर अगले भावसंखा-जे इमे जीवा संखगइनामगोत्ताई भव में शंख रूप में उत्पन्न होगा, वह शंख का आयुष्य कम्माई वेदेति ।
(अनु ६०४) न बंधने पर भी एकभविक शंख कहलाता है। शंख भव जब यह जीव शंख के भव को प्राप्तकर तिर्यञ्च की प्राप्ति के बीच में एक वर्तमान भव है, इस अपेक्षा से गति नाम, द्वीन्द्रिय जातिनाम और नीच गोत्र कर्म का उसे एकभविक कहा गया है।
वेदन करता है, तब वह भावशंख है। ___ इसकी स्थिति जघन्य अन्तरमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्व- ""मंगलाणि दम्वम्मि पूण्णकलसादी।'' कोटि है । इसका हेतु है-जो जीव पृथ्वी आदि के भव
(दनि २१) में अन्तर्मुहर्त जीकर अनन्तर भव में शंख बनता है, वह सोत्थियसिरिवच्छादिणो अट्रमंगलया सुवण्णदधिअन्तर्महर्त की स्थिति वाला एकभविक शंख होता है। अक्खयमादीणि य भावमंगलनिमित्ताणित्ति दव्वमंगलं । जो जीव मत्स्य आदि किसी भव में पूर्वकोटि जीकर फिर
(आवचू १ पृ. ५) शंख के रूप में उत्पन्न होता है, वह पूर्वकोटि की आयु पूर्ण-क्लश आदि द्रव्यमंगल हैं। वाला एकभविक शंख है।
स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, वर्धमानक, भद्रासन, बद्धायुष्क-जिस जीव ने शंख का आयुष्य बांध कलश, मत्स्य और दर्पण --ये अष्ट मंगल तथा स्वर्ण, लिया है पर अभी उस जीवन में उत्पन्न नहीं हुआ है, दही, अक्षत आदि भी द्रव्यमंगल हैं। वे भावमंगल में वह बद्धायुष्क कहलाता है। उसकी जघन्य स्थिति अन्त- निमित्त बनते हैं। महत और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग है। स्वस्तिक आदि आकृतियां मंगल क्यों ? इसका हेतु है कि वर्तमान आयुष्य का एक तिहाई भाग
आकृति-रचना और ऊर्जा के आकर्षण का परस्पर शेष रहता है तब आयुष्य का बंध होता है। इसलिए
गहरा संबंध है। स्वस्तिक और नन्द्यावर्त्त की आकृति उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि का विभाग बतलाई गई है।
रचना मंगलकारी परमाणुस्कन्धों का आकर्षण करती है अभिमुखनामगोत्र-शंख भव प्राप्त जीवों के
इसलिए स्वस्तिक और नन्द्यावर्त को मांगलिक माना जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त पश्चात्
गया है। दर्पण में पारदर्शी परमाणुस्कन्ध होते हैं और द्वीन्द्रिय जाति नाम और नीच गोत्र कर्म उदय में आते
मत्स्य की रचना भी विशिष्ट परमाणुस्कन्धों से होती है हैं। जब तक इनका उदय नहीं होता है, वे जीव अभि
इसलिए उन्हें मंगल की कोटि में परिगणित किया गया मुखनामगोत्र कहलाते हैं।
. अभिमुखनामगोत्रता भावी जन्म की अत्यन्त निकटता में होती है, इसलिए इसकी स्थिति जघन्यतः एक समय
भावमंगल और उत्कृष्टतः 1 ग्रहण की गई है।
मंगलसुयउवउत्तो आगमओ भावमंगलं होइ । नेगम-संगह-ववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ। -एकभविय बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च ।
(विभा ४९) उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च भावमंगल के दो प्रकार हैंअभिमुहनामगोत्तं च ।
१. आगमत: भावमंगल --मंगल श्रुत में उपयुक्त वक्ता । तिष्णि सद्दनया अभिमुहनामगोत्तं संखं इच्छंति।। २. नोआगमतः भावमंगल -प्रशस्त क्षायिक भाव आदि।
(अनु ५६८) अहवा सम्महसण-नाण-चरित्तोवओगपरिणामो। नैगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों शंख को मान्य नोआगमओ भावो नोसहो मिस्सभावम्मि ।। करते हैं एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । अहवेह नमुक्काराइनाण-किरिआविमिस्सपरिणामो। ... ऋजुसूत्र नय दो शंख मान्य करता है-बद्धायुष्क नोआगमओ भण्णइ जम्हा से आगमो देसे ।। और अभिमुखनामगोत्र ।
(विभा ५०,५१)
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