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आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या
वह ताप भिक्षा के लिए नदी के दूसरे तट पर गया तब एक श्रावक ने घर पर आमन्त्रित कर पैर प्रक्षालन के मिष से उसके पैर और पादुका - दोनों धो डाले । वह भिक्षा ले पानी पर चलने के लिए उद्यत हुआ । पैर तथा पादुका का लेप धुल गया था। वह पानी पर चलने में समर्थ नहीं हुआ । पानी में डूब गया । आचार्य समित नदी पर आए, द्रव्ययोग का प्रक्षेप किया और नदी से बोले - पुत्री ! वेना ! मुझे मार्ग दो। उसी समय दोनों तट परस्पर मिल गए और आचार्य उस तट पर पहुंच गए। अनेक तापस आचार्य के पास प्रव्रजित हो गए। ( आवहावृ १२७५) वृक्षआयुर्वेद और योनिप्राभृत जाइ सरो सिंगाओ भूतणओ सासवाणुलित्ताओ । संजायइ गोलोमा-विलोम संजोगओ दुव्वा ।। इति रुक्खायुव्वेदे जोणिविहाणे य विसरिसेहितो । दीसइ जम्हा जम्म
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( विभा १७७४, १७७५)
श्रृंग से शर (बाण) का निर्माण होता है। सरसों से अनुलिप्त होने पर भूतॄण शस्य (अन्न) के रूप में परिणत हो जाता है । अविलोम गोलोमों (गाय के लोमों) से दूर्वा उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार वृक्षआयुर्वेद में विलक्षण द्रव्यों के संयोग से अनेक प्रकार की वनस्पतियों के उत्पन्न होने का उल्लेख है ।
नाना प्रकार की योनियों के प्रतिपादक योनिप्राभृत ग्रंथ में विसदृश द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणियों तथा मणि, स्वर्ण आदि पदार्थों की उत्पत्ति का उल्लेख है ।
६. आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या
जेणुद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ । वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ॥ भइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विज्जाए । गंतुं च माणुसनगं विज्जाए एस मे विसओ || भइ अधारेअव्वा न हु दायव्वा इमा मए विज्जा । अपढिया उम होहिति अओ परं अन्ने || ( आवनि ७६९-७७१ ) अंतिम श्रुतधर ( श्रुतकेवली) आर्य वज्र ने 'महापरिज्ञा' अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या का उद्धार किया । इस विद्या से पूरे जम्बूद्वीप का पर्यटन कर मानुषोत्तर पर्वत पर पहुंचा जा सकता है ।
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मंत्र - विद्या
आर्य वज्र ने संकल्प किया - इस विद्या को प्रवचनप्रभावना के लिए मैं धारण करूंगा, किंतु किसी को प्रदान नहीं करूंगा, क्योंकि भविष्य में मनुष्य अल्प ऋद्धि वाले होंगे ।
७. चार महाविद्याएं
दुवे नमणि कच्छमहाकच्छाणं पुत्ता उवट्ठिता, ...अन्नया धरणो णागकुमारिदो भगवं वंदओ आगओ अहं तु भगवतो भक्ती मा तुब्भं सामिस्स सेवा अफला भवतुत्तिकाउं पढितसिद्धाई गंधव्वपन्नगाणं अडयालीसं विज्जा सहस्सा देमि, ताण इमाओ चत्तारि महाविज्जाओ, तं जहा गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती ।
( आवचू १ पृ १६१)
कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान् ऋषभ की सेवा में उपस्थित थे । एक दिन धरणेन्द्र नागकुमार भगवान् की वन्दना के लिए उपस्थित हुए और बोले—तुम लोगों ने भगवान की पर्युपासना की है, वह निष्फल न हो, इसलिए मैं तुम्हें गंधर्व पन्नगों की अड़तालीस हजार विद्याएं देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं उनमें गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति -- ये चार महाविद्याएं हैं ।
८. वृश्चिक आदि विद्याएं
विच्छू यसप्पे मूसग मिगी वराही य काग पोयाई । एयाहि विज्जाहिं सो य परिवायगो कुसलो ॥ मोरी नउली बिराली वग्घी सिही य उलुगि उवाई | एआओ विज्जाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ ॥ ( विभा २४५३, २४५४) रहरणं च से अभिमंतिऊण दिन्नं - जइ अन्नं पि उट्ठेइ तो यहरणं भमाडिय तेण वेव हणेज्जह, अजज्जो होस, इंदेणावि न सक्का जेउं सो निप्पटुपसिणवागरण कओ । ताहे सो परिव्वायगो रुट्ठी विच्छुए मुयइ । इरो पडिमल्ले मोरे मुयइ । तेहि विच्छुएहि हएहि पच्छा सप्पे मुयई । ताहे पोयागी सउलिया, तीसे उवाई ओलावित्ति वृत्तं भवइ । एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दभी मुक्का । तेण य सा रयहरणेण आया ।
( उसुवृ प ७२, ७३ ) अंतरंजिका नगरी में आचार्य श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त ने पोट्टशाल परिव्राजक की वाद संबंधी चुनौती को स्वीकार किया । आचार्य ने कहा - वत्स ! वह
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