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मुनि के लिए निषिद्ध भाषा
भाषासमिति
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भाषा के चार प्रकार हैं
एयं च अट्ठमन्नं वा, जं तु नामेइ सासयं । १. सत्य ३. मिश्र
स भासं सच्चमोसं पि, तं पि धीरो विवज्जए ।। २. असत्य ४. व्यवहार ।
वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । भासा-सच्चा, असच्चामोसा य। अभासा- तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं वए । मोसा, सच्चामोसा य । (नन्दीचू पृ६१)
(द ७।४,५) सत्य वचन और व्यवहार वचन को भाषा कहा धीर पुरुष उस अनुज्ञात व्यवहार भाषा को भी न गया है। असत्यवचन और मिश्रवचन को अभाषा कहा बोले जो अपने आशय को 'यह अर्थ है या दूसरा'-इस गया है।
प्रकार संदिग्ध बना देती है।। ३. मुनि के लिए विहित भाषा
__ जो पुरुष सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय
लेकर बोलता है (पुरुष वेषधारी स्त्री को पुरुष कहता चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं ।।
है) उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है तो फिर उसका दोण्हं तु विणयं सिक्खे, दोन भासेज्ज सव्वसो॥
क्या कहना जो साक्षात् मृषा बोले ? जं भातमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विणयो
तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवधाइणी । भण्णइ। (द ७।१ जिचू पृ २४४)
सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो । प्रज्ञावान् मुनि चारों भाषाओं को जानकर दो के
तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। द्वारा विनय-भाषा का शुद्ध प्रयोग सीखे और दो
वाहियं वा वि रोगे त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए । सर्वथा न बोले।
(द ७।११,१२) यहां विनय का अर्थ है-मूनिधर्म का अतिक्रमण न
मुनि परुष और महान् भूतोपघात करनेवाली सत्य करने वाली भाषा।
भाषा भी न बोले, क्योंकि इससे पापकर्म का बंध होता असच्चमोसं सच्चं च, अणवज्जमकक्कसं । है। इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, समुप्पेहमसदिद्धं, गिरं भासेज्ज पन्नवं ।। रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे।
(द ७।३) अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । प्रज्ञावान् मुनि व्यवहार भाषा और सत्य भाषा सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहियगामिणि ॥ जो अनवद्य, मृदु और सन्देहरहित हो, उसे सोच
(द ८/४७) विचारकर बोले।
जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित दिळं मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं वियं जियं ।
हो-ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा न बोले । अयंपिरमण व्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ।।
तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, (द ८।४८)
ओहारिणी जा य परोवघाइणी। आत्मवान् दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, से कोह लोह भयसा व माणवो, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और भय-रहित भाषा
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा । बोले।
(द ७५४)
मुनि सावध का अनुमोदन करने वाली, अवधारिणी ४. मुनि के लिए निषिद्ध भाषा
(संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध) और पर-उपघातजा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । कारिणी भाषा क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न जा य बुद्धे हिंऽणाइन्ना, न तं भासेज्ज पन्नवं ॥ बोले ।
(द ७२) गृहस्थ संबंधी जो अवक्तव्य सत्य, सत्यमुषा (मिश्र), मृषा और तहेवासंजय धीरो. आस एहि करेहि वा। वह व्यवहार भाषा जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो, उसे सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ प्रज्ञावान् मुनि न बोले।
(द ७।४७)
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